यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललाम-भूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत् ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥ (12)
इस सृष्टि में जितने भी शांत-प्रशांत एवं उपशांत परमाणु थे, वे सब खूबसूरती के खजाने जैसी आपकी देह में समा गए...। हे त्रिभुवन सुंदर! इसलिए तो अब इस सृष्टि के झरोखों में आप-सा सुंदर कोई नजर नहीं आता!