हेतु- परविद्या का असर नहीं होता, आजीविका मिलती है।
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ । निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके कार्य कियज्जलधरैर्जल-भार-नम्रैः ॥ (19)
तेरे चेहरे रूपी चंद्रमा का उजाला अँधेरे को निगल जाता है, फिर रात के उस चाँद और दिन के सूरज से मुझे क्या लेना-देना? धरती का यौवन जब पके हुए अनाज से श्रृंगारित हो उठता है, तब फिर सावन की भरी बदली को भी कौन बुलाएगा?