भगवान महावीर के मोक्ष कल्याणक के अवसर पर मुनि पुलकसागरजी ने विशेष चर्चा की। उन्होंने भगवान महावीर के अहिंसा, अपरिग्रहवाद, जियो और जीने दो के सिद्घांत के साथ ही निर्वाण लाडू क्यों चढ़ाया जाता है व जैन धर्म के अनुसार दीपावली का क्या महत्व है, जैसे विषयों पर चर्चा की। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
भगवान महावीर ने तो अहिंसा और अपरिग्रह का संदेश दिया था, लेकिन आजकल आदमी हिंसा पर उतारू है। ज्यादा परिग्रह करने लगा है। - हिंसा पर आदमी उतारू ही इसलिए हो रहा है, क्योंकि वह परिग्रह में जी रहा है। जहाँ परिग्रह होता है, वहाँ पाँचों पाप होते है। परिग्रह के लिए आदमी चोरी करता है, झूठ बोलता है, हत्या करता है, व्यसनों का सेवन करता है। सभी पापों की जड़ परिग्रह है। जब तक दुनिया भगवान महावीर के अपरिग्रह को नहीं जानेगी, किसी भी समस्या का समाधान नहीं होगा।
जियो और जीने दो का संदेश वर्तमान परिपेक्ष में कहाँ तक सार्थक हो रहा है? - पूरा विश्व अणुबम बनाने एवं हथियार बनाने के बाद भी निरस्त्रीकरण की माँग कर रहा है। यही जियो और जीने दो को सार्थक कर रहा है।
भगवान का मोक्ष कल्याणक मनाते समय आधुनिक पीढ़ी को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?
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- लक्ष्मी दो तरह की होती है। एक काली लक्ष्मी (नंबर दो की) एवं दूसरी गोरी लक्ष्मी। काली लक्ष्मी इस जन्म की कमाई है, जो यहीं खत्म हो जाती है। गोरी लक्ष्मी इस जन्म की वह कमाई है जो मोक्ष तक हमारे साथ जाती है। अर्थात धर्म रूपी लक्ष्मी कमाओगे तो भगवान महावीर के समान उसे अपने साथ ले जाओगे और धन रूपी काली लक्ष्मी कमाओगे तो संसार में बार-बार आओगे।
जैन धर्म के अनुसार धनतेरस, रूपचौदस व दीपावली का क्या महत्व है? - भगवान महावीर ने जो ३० वर्षों तक लगातार अपना उपदेश दिया, धनतेरस के दिन उनका अंतिम उपदेश था। उस अंतिम उपदेश को सुनकर लोग धन्य हो गए और वह तेरस धन्य हो गई, जिसका रूप बदलकर वह अब धन्य की जगह धनतेरस हो गई। चौदस वाले दिन भगवान की वाणी न मिलने से सभी को धर्म विहीन वातावरण मिलने से नरक जैसा लगा जिस कारण उसे नर्क चौदस कहा जाने लगा।
कार्तिक अमावस्या की रात को जब भगवान महावीर का निर्वाण हुआ तब देवों ने उनका अग्नि संस्कार किया। उस दिन अग्नि अग्नि न होकर पावन बन गई। पावक का अर्थ होता है जो पवित्र करे। ऐसे उस पवित्र अग्नि को लोग दीये में लेकर अपने-अपने घर आए और घरों को पवित्र किया। उस दिन से दीपावली मनना आरंभ हुई।
संध्याकाल गोधूलि बेला में भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई तो सभी ने खुशियों के लडडू खाए तभी से भगवान को लाडू चढ़ाने लगे।
लाडू ही क्यों चढ़ाया जाता है? - लाडू की अनेक विशेषता है, जो अन्य मिष्ठानों में नहीं है। लाडू को मोदक भी कहा जाता है। मोदक का अर्थ है जो प्रमोदित कर दे। लाडू मीठा होता है, जो सबमें मिठास भरता है। लोगों के दिल में मिठास भरता है। यह गोल होता है। गोल का अर्थ होता है जिसका न प्रांरभ है न अंत। ऐसी ही हमारी आत्मा है जिसका आदि और अंत नहीं है।
लाडू बहुत से बूंदी के दानों को जोड़कर बनता है अर्थात हम भी अपनी बिखरी हुई आत्मशक्ति को संयोजित करें। यह पीला होता है जो भक्ति की प्रतीक पीतलेश्या में होता है। भक्ति हमेशा पीतलेश्या में ही होती है इसलिए केसरिया वस्त्रों का ही पूजा में विधान है। भगवान महावीर ने पीतलेश्या को ही शुभ कहा है।
लाडू बनने के पहले कढाई में तलाता है फिर मीठा होता है। जो तपस्या में तपेगा वही मोक्ष का लाडू खाता है। इसलिए जैन निर्वार्णोत्सव पर लाडू चढ़ाते हैं।