देखा था परंतप अर्जुन ने विपक्ष में खड़े अपने दादा, पड़दादा, आचार्यों, मामाओं, पुत्र-पौत्रों, मित्रों, स्वजनों, परिजनों और बंधुजनों को। सोचने लगे कि जिनके हाथों ने मुझे झुलाया, जिनकी गोद में खेलकर मैं बड़ा हुआ, जिनके आश्रम में रहकर मैंने विद्या पाई, जिन्होंने मुझे धनुष-बाण चलाना सिखाया क्या उन्हीं से युद्ध करूं? इन्हें मारने से तो बेहतर होगा कि मैं भीख मांगकर खाऊं। इन सभी के खून से लथपथ, सना हुआ राज्य लेकर मैं क्या करूँगा। चले गए थे विषादग्रस्त पार्थ, कृष्ण की शरण में शिष्य भाव से। की थी ऐसे में शिक्षा पाने के लिए अर्जुन ने अनुनय-विनय श्रीकृष्ण से और श्रीकृष्ण ने समझाया था यूँ उस किंकर्तव्यविमूढ़ पार्थ को।