करवा चौथ : सुहागिनों का त्योहार

कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि को सदियों से करवा चौथ के रूप में मनाया जाता है। इसे करक, करवा, करूआ या करूवा अनेक नामों से जाना जाता है। कई स्थानों पर इसे करवा गौर के नाम से भी पहचाना जाता है।

करवा मिट्टी या धातु से बने हुए लौटे के आकर के एक पात्र को कहते हैं, जिसमें टोंटी लगी होती है। करवा चौथ का व्रत स्त्रियां अपने सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए रखती हैं।

शास्त्रों में दो विशिष्ट संदर्भों की वजह से करवा चौथ व्रत के पुरातन स्वरूप का प्रमाण मिलता है। इस व्रत के साथ शिव-पार्वती के उल्लेख की वजह से इसके अनादिकाल का पता चलता है। संपूर्ण भारत में, विशेष रूप से उत्तर-पूर्वी भारत में करवा चौथ का व्रत मनाया जाता है। निर्जला एकादशी व्रत की तरह यह व्रत भी निराहार व निर्जला होता है।

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ऐसा माना जाता है कि यह व्रत सिर्फ विवाहिता स्त्रियों के लिए है परंतु अविवाहित कन्याओं द्वारा भी इस व्रत को किए जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं। फर्क सिर्फ इतना ही है कि सौभाग्यवती महिलाएं चंद्रदर्शन के पश्चात व्रत तोड़ती हैं और कन्याएं आसमान में पहले तारे के दर्शन के बाद व्रत समाप्त करती हैं। संभव है कि लोकोक्ति 'पहला तारा मैंने देखा, मेरी मर्जी पूरी' इस व्रत के कारण ही शुरू हुई हो।

करवा चौथ व्रत में शिव, पार्वती, कार्तिकेय और चंद्रमा की पूजा की जाती है। इस व्रत के लिए चंद्रोदय के समय चतुर्थी होना जरूरी माना गया है। इस व्रत में करवे का विशेष रूप से प्रयोग होता है। महिलाएं दिनभर निर्जला उपवास रखती हैं और चंद्रोदय के बाद भोजन-जल ग्रहण करती हैं। करवे में पकवान भरे जाते हैं या पताशे रखे जाते हैं और उन्हें दान में दिया जाता है। कई स्थानों पर चावल से बने व्यंजन भी रखे जाते हैं।

इसी दिन कथा सुनी जाती है। दीवारों पर या जमीन पर सूर्य, चंद्र और करवे के चित्र बनाए जाते हैं। करवे को चावल व अलग-अलग रंगों से आवृत्तियां बनाकर सजाया जाता है। करवे की टोंटी में सरकंडे की सीकें लगाई जाती हैं। टोंटीवाले करवे के लोटे का चयन संकल्प व आचमन हेतु जल निकालने के लिए किया जाना, संभव है इस व्रत के पूर्व में ही विद्यमान रहा होगा।

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