फनी कविता: नदी-ताल भर जाने दो

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

मंगलवार, 22 जुलाई 2014 (16:46 IST)
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कुंठा के दरवाजे खोलो,

पवन सुगंधित आने दो।

ओंठों पर से हटें बंदिशें,

बच्चों को मुस्काने दो।

 

भौरों के गुंजन पर अब तक,

कभी रोक न लग पाई।

फूलों के हंसने की फाइल,

रब ने सदा खुली पाई।

थकी हुई बैठी फूलों पर,

तितली को सुस्ताने दो।


 
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गुमसुम-गुमसुम मौसम बैठा,

अंबर भी क्यों चुप-चुप है।

पेड़ लताएं मौन साधकर,

बता रहीं अपना दुख है।

बादल से ढोलक बजवाओ,

हवा मुखर हो जाने दो।

 

नीरस सुस्ती और उदासी,

शब्द कहां से यह आए।

इनकी हमको कहां जरूरत,

इन्हें धरा पर क्यों लाए।

अमृत की बूंदें बरसाओ,

नदी-ताल भर जाने दो।

 

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