बाल कविता : बड़ी चकल्लस है

प्रभुदयाल श्रीवास्तव

शनिवार, 13 सितम्बर 2014 (12:09 IST)
रोज-रोज का खाना खाना, 
बड़ी चकल्लस है।


 

 
दादी दाल-भात रख देती, 
करती फतवा जारी
तुम्हें पड़ेगा पूरा खाना
नहीं चले मक्कारी। 
दादी का यह पोता देखो, 
कैसा परवश है। 
बड़ी चकल्लस है। 
 
भूख नहीं रहती है फिर भी, 
कहते खा लो खा लो। 
घुसो पेट में मेरे भीतर, 
जाकर पता लगा लो। 
तुम्हें मिलेगा पेट लबालब, 
भरा ठसाठस है।
 
बड़ी चकल्लस है। 

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