कविता : जितनी लंबी चादर, उतने पैर पसारें...

कंधे पर थैला डाले जब, चींटी गई बाजार,
आलू-भटा-टमाटर-गोभी, लेकर आई उधार।


 
बहुत दिनों तक सब्जी का जब, पैसा नहीं चुकाया,
सब्जी वाला भालू चाचा, चींटी पर चिल्लाया।
 
बोला सब्जी लाई थीं तुम, पैसे नहीं चुकाए,
बड़ी बेशर्म हो तुम चींटी, तुम्हें लाज ना आए।
 
चीटीं बोली क्षमा करो अब, मुझको भालू चाचा,
क्यों मारे जाते हो मेरे, मुंह पर कड़ा तमाचा।
 
नहीं टेंट में थे पैसे, मैं फिर भी सब्जी लाई,
हुई उधारी नहीं चुकाई, इज्जत हाय गंवाई।
 
भालू बोला हद में रहना, शेखी नहीं बघारें,
जितनी लंबी चादर होती, उतने पैर पसारें।

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