जर्मनी में उठेगी परमाणु ऊर्जा की अर्थी

राम यादव

गुरुवार, 2 जून 2011 (14:57 IST)
WD
जर्मनी की चांसलर (प्रधानमंत्री) अंगेला मेर्कल ने, अपने कई मंत्रियों और उद्योगजगत के प्रतिनिधियों वाले एक भारी दल-बल के साथ 31 मई को भारत पहुंचने से ठीक पहले, अपने एक साहसिक निर्णय से दुनिया में हलचल मचा दी है। उन्होंने तय किया है कि परमाणु ऊर्जा के उत्पादन और उससे जुड़ी तकनीक में संसार का एक अग्रणी देश होते हुए भी जर्मनी अगले 11 वर्षों में इस ऊर्जा को पूरी तरह तिलांजलि दे देगा

चांसलर मेर्कल के नेतृत्व में जर्मन सरकार ने दो ही दिन पहले तय किया कि 2022 तक जर्मनी के सभी 17 परमाणु बिजलीघर हमेशा के लिए ठंडे पड़ जायेंगे। देश की जनता इस निर्णय पर झूम रही है। शेष दुनिया बुझौनी बूझ रही है।

बुझौनी यही, कि अभी गत वर्ष अक्टूबर में ही चांसलर मेर्कल ने परमाणु बिजलीघरों की मालिक कंपनियों के साथ एक सौदा किया था। वे अपने रिएक्टरों में खपने वाले परमाणु ईँधन (यूरेनियम और प्लूटोनियम) पर सरकार को एक नया कर देंगी। बदले में सरकार परमाणु बिजलीघरों को चालू रखने की समय-सीमा बढ़ा देगी। पुराने बिजलीघरों के मामले में यह बढ़ोतरी आठ और अपेक्षाकृत नए बिजलीघरों के प्रसंग में 14 वर्ष होती।

इस सौदे के कारण चांसलर मेर्कल की देश में भारी आलोचना हो रही थी। उन पर परमाणु लॉबी का हितैषी होने का आरोप भी लग रहा था। आरोप बिल्कुल निराधार भी नहीं था, क्योंकि भौतिकशास्त्र में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त चांसलर मेर्कल को उस समय भी भलीभांति पता रहा ही होगा कि परमाणु रिएक्टर अपने आप में परमाणु बम होते हैं।

भ्रम टूटा चांसलर का : उन्हें इस बारे में यदि कोई भ्रम था, तो वह गत मार्च महीने में जापान में आए भूकंप के भीषण झटकों, त्सुनामी कहलाने वाली उत्ताल तरंगों के थपेड़ों और दोनों की मार से हिल गए फुकूशिमा परमाणु बिजलीघर के रिएक्टरों ने तोड़ दिया। उसी समय से परमाणु ऊर्जा की निरापदता के प्रति जर्मन चांसलर का आत्मविश्वास डिगने लगा। उन्होंने माना कि 'हम जिसे असंभव समझते हैं, वह भी संभव है।'

जापान में फुकूशिमा की परमाणु दुर्घटना जर्मनी में हुए अब तक के तीन विधानसभा चुनावों में चांसलर मेर्कल की पार्टी को ले डूबी। जनमत के सामने नतमस्तक होने और जनता-जनार्दन की इच्छा को शिरोधार्य करने के सिवाय उनके पास कोई चारा ही नहीं बचा।

परमाणु बिजलीघरों की सुरक्षा-कसौटी : चांसलर मेर्कल ने सबसे पहले 17 में से उन सात बिजलीघरों को तुरंत बंद करने का निर्णय लिया, जो 'पुराने' कहलाते हैं। परमाणु ऊर्जा के 100 विशेषज्ञों का एक दल गठित किया गाया, जिसे देश के सभी परमाणु बिजलीघरों में जाकर पता लगाना था कि वे 'स्ट्रेस-टेस्ट' कहलाने वाली सुरक्षा की किन कसौटियों पर खरे उतरते हैं और किन पर नहीं। मुख्य कसौटियाँ थीं:

रिएक्टर के भीतर और उसके बाहर परमाणु ईंधन की धारक छड़ों को ठंडा रखने की प्रणाली क्या अब तक की अनपेक्षित परिस्थितों को भी झेल पाएगी?

उन परिस्थितियों के लिए क्या व्यवस्थाएं हैं, जब ईंधन की प्रशीतन प्रणाली फ़ेल हो जाये, बिजली गुल हो जाये या परमाणु ईँधन वाली छड़ें पिघलने लगें?

आपातकालीन बिजली आपूर्ति, संकट के समय कर्मचारियों की उपलब्धता, हाइड्रोजन गैस के विस्फोट की संभावना और रेडियोधर्मिता के जानलेवा हो जाने- जैसी परिस्थितियों से निपटने के लिए क्या उपाय किए गए हैं?

जमीन की भूगर्भीय बनावट कैसी है? रिएक्टर क्या भूकंप के बहुत ही तेज झटकों को भी सह सकता है?

रिएक्टर क्या भूकंप के कारण जमीन के उठने, बैठने, उस में दरार पड़ जाने, नदियों में बाढ़ आ जाने, आग लग जाने, प्रशीतनकारी पानी व अन्य पदार्थों के बह जाने, आधारभूत संरचनाओं (सड़कों इत्यादि) के नष्ट हो जाने और कर्मचारियों कमी पड़ जाने को भी झेल सकता है?

कोई बांध टूट जाने से आई बाढ़, त्सुनामी लहरों तथा बाढ़ के साथ बह कर आयी वस्तुओं का रिएक्टर की सुरक्षा पर क्या असर पड़ेगा?

किसी आतंकवादी हमले, किसी यात्री या सैनिक विमान के टकराने पर क्या होगा?

यदि बिजली फेल हो जाए तो क्या कम से कम 72 घंटों तक डीजल जनरेटर चला कर ज़रूरी बिजली पैदा करना, रिएक्टर को ठंडा रखना और इस बीच जरूरी मरम्मत कार्य करना संभव होगा?

कसौटियों पर खरे नहीं उतरते : जांच दल को डेढ़ महीने में अपना आकलन पेश कर देना था। इतने कम समय में जांच दल स्वयं हर चीज का निरीक्षण नहीं कर सकता था। इसलिए उसे अधिकतर उन जानकारियों से काम चलाना पड़ा, जो बिजलीघर संचालकों ने दीं। तब भी जांच करने वालों ने पाया कि उच्च कोटि की परमाणु तकनीक वाला देश होते हुए भी जर्मनी के परमाणु बिजलीघर इन कसौटियों पर उतने खरे नहीं उतरते, जितना दावा किया जाता रहा है।

उदाहरण के लिए, जर्मनी का कोई भी परमाणु बिजलीघर फुकूशिमा जैसी परिस्थितियों को या अमेरिका में 9/11 जैसे आतंकवादी हवाई हमले को झेलने के विचार से नहीं बना है।

इस आकलन के आधार पर एक विशेष 'एथिक कमिशन' (नीति आयोग) को यह सुझाव देना था कि नीति-अनीति की दृष्टि से सरकार को क्या करना चाहिए। इस आयोग में परमाणु बिजलीघरों की मालिक चार बड़ी कंपनियों के भी प्रतिनिधि थे। आयोग ने गहरे विचारविमर्श और लंबी बहसों के बाद सुझाव दिया है कि जापान में फ़ुकूशिमा परमाणु दुर्घटना के तुरंत बाद 1970 वाले दशक में बने जिन सात परमाणु बिजलीघरों को बंद कर दिया गया था, उन्हें दुबारा चालू करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। शेष बिजलीघरों को रिएक्टर-सुरक्षा के उनके स्तर और बिजली आपूर्ति के लिए उनके क्षेत्रिय महत्व के क्रम में अगले 10 वर्षों में बंद कर दिया जाना चाहिए।

इस नीति-आयोग ने यह भी सुझाव दिया है कि जर्मनी में परमाणु ऊर्जा की अर्थी उठाने के काम की निगरानी करने के लिए एक निष्पक्ष संसदीय प्रभारी की नियुक्ति की जाये और 'राष्ट्रीय ऊर्जानीति परिवर्तन फ़ोरम' नाम के ऐसे मंच का गठन किया जाए, जो यह सुनिश्चित करे कि देश की जनता भी इस परिवर्तन के हर चरण में सहभागी बनेगी।

PTI
रात भर चली जर्मन मंत्रिमंडल की बैठक: चांसलर अंगेला मेर्कल की अध्यक्षता में 29 से 30 मई वाली पूरी रात चली जर्मन मंत्रिमंडल की एक बैठक में तय हुआ कि 2022 तक जर्मनी परमाणु ऊर्जा को तिलांजलि दे देगा। गत मार्च में बंद कर दिए गए सातों परमाणु बिजलीघर अब बंद ही रहेंगे। बाकी बिजलीघर 2021 तक चलेंगे। जरूरी होने पर उन में से तीन 2022 तक भी चल सकते हैं।

जर्मनी परमाणु ऊर्जा के बदले पर्यावरण संगत ऊर्जा को अब और अधिक बढ़ावा देगा। नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा स्रोतों के दोहन के लिए बने प्रोत्साहन कोष की धनराशि को बढ़ा कर डेढ़ अरब यूरो ( लगभग एक खरब रूपए) कर दिया जाएगा। जो मकान मालिक सौर या पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक स्रोतों से बिजली प्राप्त करने में पैसा लगाएंगे, वे अपनी लागत के 10 प्रतिशत को हर साल बट्टे खाते में डाल सकते हैं और अपनी लागत से जुड़े रखरखाव के खर्च को अपने किरायेदारों के बीच बांट सकते हैं।

देश-विदेश में काफी चर्चा है: परमाणु ऊर्जा को त्याग देने के जर्मनी के इस निर्णय की देश-विदेश में काफी चर्चा है। जर्मनी के बाहर उस पर विस्मय, छींटाकशी और आलोचना अधिक सुनाई पड़ती है, प्रशंसा कम। स्वयं फ्रांस, ब्रिटेन या स्वीडन जैसे जर्मनी के पड़ोसी देशों को भी लग रहा है कि जर्मनों का सिर फिर गया है। अंगेला मेर्कल की मति मारी गई है। जर्मनी जैसा औद्योगिक देश परमाणु ऊर्जा को त्याग कर भला जिंदा कैसे सकता है?

लेकिन, सच्चाई यह है कि बुद्धिमान वह नहीं होता, जो अपनी गलती से सीखता है, बल्कि वह होता है, जो दूसरों की गलती से सीख लेता है। जर्मनी के पर्यावरणवादी और जर्मन युवा 1970 वाले दशक से ही, जब जर्मनी में परमाणु बिजलीघर बनने शुरू हुए थे, परमाणु ऊर्जा के विरोध में सड़कों पर धरने देने लगे थे। जर्मनी मे भले ही कभी कोई बड़ी परमाणु दुर्घटना नहीं हुई हो, चेर्नोबिल और फुकूशिमा की विभीषिकाओं ने उनकी आशंकाओं को पुष्ट ही किया है।

जर्मन लोगों की मानें, तो मति उस जापान की मारी गयी होनी चाहिए, जो दो-दो परमाणु बमों की विभीषिका और फुकूशिमा में चार रिएक्टरों की दुर्घटना का भुक्तभोगी होते हुए भी परमाणु ऊर्जा को अब भी छाती से लगाए बैठा है। बुद्धि उन देशों की भ्रष्ट है, जो परमाणु ऊर्जा के हजारों वर्षों तक चलने वाले प्राणघातक प्रभावों को अब भी देख नहीं पाए हैं। जर्मन जनता जानबूझ कर बारूद के ढेर पर नहीं बैठना चाहती।

परमाणु ऊर्जा को तिलांजलि जनभावना का सम्मान : परमाणु ऊर्जा को तिलांजलि देने का निर्णय कर जर्मन चांसलर ने अपनी जनता की इच्छा का सम्मान ही किया है। उनका ही नहीं, जर्मनी की पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी के नेताओं का भी कहना है कि जिस तरह हम अब तक परमाणु ऊर्जा तकनीक में अगुआ थे, उसी तरह हम अब पर्यावरणसंगत निरापद ऊर्जा की तकनीक में भी अगुआ बनेंगे।

परमाणु बिजली जर्मनी में बिजली की कुल मांग के लगभग 20 प्रतिशत के बराबर है। इस आशंका को निराधार बताया जा रहा है कि परमाणु बिजलीघरों के बंद होने से जर्मनी में भी बिजली का अकाल पड़ सकता है या उसकी राशनिंग करनी पड़ सकती है। स्वयं यही तथ्य सबसे बड़ा तर्क है कि 17 में से सात परमाणु बिजलीघर गत मार्च से बंद हैं, तब भी कहीं कोई रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा है।

कुछ जानकारों का तो यह भी दावा है कि परमाणु बिजलीघरों को अब तक जबर्दस्ती जिंदा रखा गया था। देश में पहले से ही इतनी बिजली उपलब्ध है कि सारे परमाणु बिजलीघर यदि आज ही बंद हो जाएं, तब भी कुछ बिगड़ेगा नहीं। अगले 10-11 वर्षों में तो वैकल्पिक ऊर्जा का और भी विस्तार हो जाएगा। यदि कभी कहीं कोई कमी पड़ी, तो जर्मनी अकेला नहीं है। यूरोपीय बिजली ग्रिड (संजाल) का वह भी एक सदस्य है। अपने पड़ोसी देशों से बिजली प्राप्त कर सकता है।

घर-घर की छत पर बनती है बिजली : परमाणु ऊर्जा से मुंह फेरने के जर्मनी के निर्णय पर सिर खुजलाने वाले शायद यह नहीं जानते कि जर्मनी में 60 प्रतिशत बिजली तेल, गैस और कोयले से बनती है। साथ ही पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा का पिछले कुछ समय से बहुत तेज़ी से विस्तार हुआ है। भूमि पर ही नहीं, तटपारीय समुद्र में भी पवन ऊर्जा संयंत्रों के बड़े-बड़े पार्क बने हैं। पवन ऊर्जा संयंत्रों और सौर ऊर्जा के दोहन के लिए आम घरों की छतों पर तेजी से लग रहे फोटोवोल्टाइक पैनलों से इस बीच 17 प्रतिशत बिजली मिल रही है। यह अनुपात 2020 तक 35 प्रतिशत हो जाएगा।

सौर ऊर्जा को प्रोत्साहन देने का सरकारी कार्यक्रम इतना आकर्षक रहा है कि जिस किसी के पास अपना निजी घर या बिल्डिंग है, वह उसकी छत पर या तो स्वयं फोटोवोल्टाइक पैनल लगाने लगा है या छत को ऐसी छोटी-बड़ी फर्मों को किराए अथवा पट्टे पर देने लगा है, जो वहां अपना फोटोवोल्टाइक संयंत्र लगाना चाहती हैं। मार्च 2003 से नियम यह है कि इस तरह के हर छोटे-बड़े संयंत्र से बनी बिजली यदि कोई बेचना चाहे, तो स्थानीय बिजली आपूर्तिकर्ता कंपनी अगले 20 वर्षों तक उसे खरीदने के लिए बाध्य है।

बिजली पैदा करने वाली धूप क्योंकि केवल दिन में ही हो सकती है, रात में नहीं, पर बिजली की जरूरत तो रात में भी पड़ती है, इसलिए हर घर किसी न किसी बिजली प्रदायक कंपनी का ग्राहक भी है। रात में वह कंपनी की बिजली लेता है, दिन में अपनी छत पर बन रही बिजली उसे बेचता है। ग्राहक के घर में कम से कम दो मीटर लगे होते हैं। एक मीटर दिखाता है कि उसने कंपनी के सार्वजनिक ग्रिड में कितनी बिजली डाली। दूसरा दिखाता है कि उसने कंपनी के ग्रिड से अपने काम के लिए कितनी बिजली ली।

छत से हो रही है अतिरिक्त कमाई: शुरू-शुरू में घरों की छतों पर लगे 30 किलोवाट से कम क्षमता वाले सौर संयंत्रों से बनी इस बिजली के लिए स्थानीय बिजली कंपनी से प्रति किलोवाट 46.75 यूरोसेंट (उस समय की विनिमयदर पर लगभग30रूपए) मिलते थे। इससे अधिक लेकिन 5 मेगावाट से कम क्षमता वाले संयंत्रों की बिजली के लिए घर के मालिक को कम से कम 35.49 यूरोसेंट मिला करते थे।

इससे घरों की छतों पर सौर ऊर्जा पैनल वाले संयंत्र लगाने की ऐसी बाढ़-सी आ गयी कि जर्मन सरकार को अपना नियम बदलना पड़ा। 2011 से यह भुगतान दर औसतन 26 यूरोसेंट (लगभग 23 रूपए) प्रति किलोवाट है, यानी उस दर से फिर भी 4 से 6 यूरोसेंट अधिक, जो बिजली कंपनियां अपने ग्रहकों से वसूलती हैं। अगले वर्ष इसमें 6 प्रतिशत की और कटौती होगी। तब भी कहा जाता है कि लोग अपनी छत पर बन रही बिजली बेच कर अपनी लागत पर औसतन 6 से 8 प्रतिशत का लाभ कमाते हैं। यह कमाई किसी जर्मन बैंक में पैसा रखने पर मिल सकने वाली अधिकतम ब्याजदर से तीन से चार गुना अधिक है।

भारत जैसे देशों के लिए अच्छा उदाहरण : सौर ऊर्जा के विकेंद्रित प्रसार को बढ़ावा देने और उसे घर-घर की छत पर पहुंचाने की दृष्टि से भारत जैसे देशों के लिए यह एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। वैसे, जर्मनी सौर ऊर्जा के दोहन के लिए कोई अनुकूल देश नहीं है। उत्तरी ध्रुव के कहीं निकट एक ठंडा देश होने के नाते जर्मनी में भारत की अपेक्षा बहुत कम धूप होती है-- औसतन केवल 1550 घंटे वार्षिक, यानी लगभग केवल 65 दिनों के बराबर। भारत में साल में औसतन 300 दिन धूप चमकती है। जर्मनी में धूप की चमक भी कम होने के कारण उसमे छिपी ऊर्जा केवल 110 वाट प्रति वर्गमीटर वार्षिक होती है।

इस दृष्टि से भारत में घरों की छतों पर पड़ने वाली धूप को बिजली में बदलना उससे कहीं आसान और लाभदायक होना चाहिए, जितना वह जर्मनी में है। यही कारण है कि जर्मनी की कुछ कंपनियों ने मिल कर अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान की प्रखर धूप को बिजली में बदलने और भूमध्य सागर में केबल बिछा कर इस बिजली को यूरोप लाने की 'डेजर्टेक' नाम की एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई है। उन्हें प्रतीक्षा है मिस्र, अल्जीरिया, लीबिया, ट्यूनीशिया और मोरक्को जैसे देशों में ऐसी राजनैतिक स्थिरता की कि वे अपनी योजना को आगे बढ़ा सकें।

जर्मनी भारत में मुंबई के पास नियोजित संसार के सबसे बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र के निर्माण में सहायता देने के लिए भी तत्पर है। जर्मन चांसलर की भारत यात्रा के दौरान इस दिशा में कोई समझौता भी हो सकता है।

धूप की तंगी तो पवन ऊर्जा को प्रोत्साहन : स्वयं जर्मनी में धूप की तंगी होने के कारण सरकार कुछ समय से पवन ऊर्जा को अधिक प्रोत्साहन दे रही है। अक्षय ऊर्जा के दोहन में पवन ऊर्जा संयंत्र ही इस समय सबसे आगे हैं। जमीन पर लगे पवन संयंत्र वर्ष में औसतन 5000 घंटों तक और तटपार समुद्र में लगे संयंत्र 8000 घंटों तक चलते हैं, हालांकि 365 दिनों के वर्ष मे कुल 8760 घंटे होते हैं। उनकी प्रति किलोवाट बिजली क्षमता पर 1786 यूरो की लागत बैठती है। लागत और रखरखाव महंगा होने के कारण पवन ऊर्जा संयंत्र मुख्य रूप से बड़ी-बड़ी बिजली कंपनियों के ही वश की बात हैं। वे कंपनियां, जिन्हें अपने परमाणु बिजलीघरों से हाथ धोना पड़ेगा, पवन ऊर्जा के कारोबार में अभी से सक्रिय हो गईं हैं।

ND
परमाणु में नहीं, पर्यावरण में है हमारा उद्धार : हो सकता है कि वे समय से पहले अपने परमाणु संयंत्र बंद करने के बदले में सरकार से क्षतिपूर्ति पाने के लिए अदालत में भी जाएं। सरकार को अभी यह भी सोचना है कि 17 परमाणु बिजलीघरों के बंद हो जाने के बाद उनके भवनों, रिएक्टरों तथा बचे हुए और जले हुए परमाणु ईंधन का क्या होगा? अंततः तो भवनों और रिएक्टरों को कभी न कभी तोड़ना ही पड़ेगा। वे रेडियोधर्मी कचरा बनेंगे।

जर्मनी ही नहीं, संसार के किसी भी देश के पास ऐसा स्थायी परमाणु कूड़ागार नहीं है, जहां रेडियोधर्मी कूड़ा लाखों वर्षों तक अनछुआ पड़ा रह सके, ताकि हजारों वर्ष बाद की हमारी कोई भावी पीढ़ी अनजाने में उससे प्रभावित न हो। इस दृष्टि से भी दुनिया में परमाणु ऊर्जा की अर्थी जितना जल्दी उठेगी, भावी पीढ़ियों के लिए रेडियोधर्मी कचरे से किसी नुकसान की संभावना भी उतनी ही कम होगी। परमाणु में नहीं, पर्यावरण में है हमारा उद्धार।

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