उम्मीदों के हिमालय पर केजरीवाल

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015 (14:38 IST)
दिल्ली की जनता ने एक बार फिर नई नवेली आम आदमी पार्टी (आप) और इसके मुखिया अरविंद केजरीवाल को सिर माथे पर बिठाया था। लेकिन जनता जिनती तेजी से उम्मीदें बांधती है, उतनी ही तेजी से निराश भी होती है।

दिल्ली में वोटों की सुनामी के ज्वार में आप समर्थक भले ही जश्न में डूबे हों लेकिन केजरीवाल के लिए जनता की असीम उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती है। बेशक उन्हें पता है कि अगर महज नौ महीनों में मोदी लहर के तिलस्म का टूटना दिल्ली से शुरू हो सकता है तो फिर अपेक्षाओं पर खरे उतरने के मामले में जनता उन्हें भी कोई रियायत नहीं देगी।

आम आदमी के लिए बिजली पानी सहित अन्य बुनियादी जरूरतों को पूरा करने से लेकर व्यापारियों, छात्रों और महिलाओं सहित समाज के सभी तबकों से किए गए वादों को पूरा करने के इम्तिहान में केजरीवाल के लिए पास होना अनिवार्य शर्त होगी। साथ ही विधानसभा के 1983 में गठन के बाद से लगातार जवां हो रही दिल्ली के तख्त पर केजरीवाल को महज दो साल में पहुंचाने वाली युवा पीढ़ी उनसे भी जवाब मांगने में देर नहीं करेगी।

केजरीवाल और आप को महज दो साल में सफलता के शिखर पर पहुंचाने में पार्टी कार्यकर्ताओं की मेहनत और रणनीति के अलावा विरोधी भी साधक साबित हुए। चुनावी जानकारों की राय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित बीजेपी के तमाम नेताओं के जुमले और कांग्रेस की पराजय उन्मुख रणनीति ने आप की राह में बिछे कांटे खुद साफ कर दिए। इनमें बीजेपी का हर दांव उल्टा पड़ना सबसे अहम कारण रहा। लोकसभा चुनाव के बाद दिल्ली के चुनाव एक साल टालना, दिल्ली में 280 सांसद उतारना, भगवाधारी नेताओं के बोल, रामलीला मैदान में मोदी की रैली का नाकाम होना, केजरीवाल को नक्सली, बंदर और बदनसीब कहना तथा चुनाव से ठीक पहले पार्टी के पुराने नेताओं की मर्जी के खिलाफ किरण बेदी को चेहरा बनाने सहित हर फैसला बीजेपी के खिलाफ और आप के पक्ष में गया।

आखिर में इमाम बुखारी का आप को समर्थन देना ताबूत की आखिरी कील साबित हुआ। बुखारी की अपील को महज आधे घंटे में खारिज करना आप का सबसे बड़ा चुनावी मास्टर स्ट्रोक रहा। आखिर में महज 24 दिन में हुए इस चुनावी घटनाक्रम का नतीजा नयी राजनीति की शक्ल में मंगलवार को दिल्ली से लेकर देश, दुनिया ने देखा।

ब्लॉग: निर्मल यादव (नई दिल्ली)

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