जलवायु परिवर्तन का सबसे खौफनाक रूप दिखता है ध्रुवों और ग्लेशियरों की बर्फ के पिघलने के रूप में। लेकिन लगता नहीं कि दुनिया में बहुत से लोग इस बारे में सचेत या सावधान हैं जबकि निर्णायक उपायों का समय आ चुका है।
वैश्विक गर्मी धरती के ग्लेशियरों और बर्फ की परतों को बेशक गला रही है लेकिन बचकाने तर्क ये दिए जाते हैं कि क्या समुद्रों के उभार से बचकर हम पहाड़ों की ओर नहीं भाग सकते हैं। ध्रुवीय बर्फ के पिघलाव को फिल्मी कहानियों में अक्सर सूनामी लाने वाले विनाशकारी महायुद्ध की तरह दिखाया जाता है। ऐसी ही तबाही पर आधारित 2004 की फिल्म 'द डे आफ्टर टुमॉरो' में खाड़ी की गर्म हवाएं और नॉर्थ अटलान्टिक हवाएं तेजी से ध्रुवीय बर्फ को गलाती हैं। इससे न्यूयॉर्क शहर समेत विशाल भू-भाग को महासागर के पानी की एक विशाल दीवार ढंक लेती है जिसमें करोड़ों लोग मारे जाते हैं और उत्तरी गोलार्द्ध में हाल की ध्रुवीय भंवर (पोलर वोरटेक्स) की तरह, जमा देने वाली ठंड ध्रुवों से उठती है और दूसरा हिमयुग आ गिरता है।
फिल्मी कहानी का यथार्थ
जाहिर है कहानी बचकाना और हास्यास्पद है। लेकिन 2015 में अलास्का में तेजी से पिघलते ग्लेशियरों ने वाकई एक बहुत बड़ा भूस्खलन और विशाल सूनामी पैदा कर दी थी जो तट तक पहुंचते पहुंचते साढ़े 600 फुट यानी करीब 200 मीटर ऊंची हो चली थी। बहुत कम लोग यह जानते हैं या इसकी परवाह करते हैं, क्योंकि ये धरती के उस छोर पर घटित हुआ था जहां कोई रहता ही नहीं।
हममें से कई लोग मानते हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि से खरबों टन वजनी बर्फ अगर टूटी भी तो हम पर सीधा असर नहीं पड़ेगा। हम फौरन यह अंदाजा लगाने लगते हैं कि अगर हम प्रशांत क्षेत्र के किसी छोटे द्वीप पर न रहते हों या तट पर हमारा घर न हो, तो फिर कोई बात नहीं, यह हमारी समस्या नहीं हैं।
आइसलैंड ने हाल ही में ओकजोकुल स्थित आइस-शीट को श्रद्धांजलि अर्पित की। यह जलवायु परिवर्तन में अपना अस्तित्व गंवा देने वाले ग्लेशियर की अन्त्येष्टि का मौका था। ओके नाम से मशहूर ओकजोकुल ने 2014 में ग्लेशियर के रूप में अपना दर्जा गंवा दिया था। रविवार के शोक आयोजन में मातम के लिए जमा हुए लोगों ने एक तख्ती का अनावरण किया, जिसमें लिखा था कि देश के प्रमुख ग्लेशियरों का भी अगले 200 साल में यही हश्र होगा।
क्या खत्म हो जाएंगे ग्लेशियर
यह एक जटिल मुद्दा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि धरती के भू-भाग का दस प्रतिशत हिस्सा ग्लेशियर, आइस कैप और आइस शीट से बनता है और इनमें से ज्यादातर निर्जन स्थानों पर हैं लेकिन इनके बहुत तेजी से टूटने के और भी बहुत बड़े और व्यापक दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
पिघली हुई बर्फ के रूप में जो अतिरिक्त साफ पानी है, वह महासागरों में मिलकर नमक के स्तर को डाइल्यूट कर रहा है। समंदर कम खारे हो रहे हैं और इसकी वजह से दुनिया के सबसे महत्त्वपूर्ण महासागरीय वायु प्रवाहों में से एक- गल्फ स्ट्रीम के संतुलन में गड़बड़ी पैदा होती है। इसका नतीजा होता है जलवायु की अत्यधिकताएं, खासकर मेक्सिको की खाड़ी जैसी जगहों पर ट्रॉपिकल तूफान और चक्रवातों की दर बढ़ जाती है। और अटलान्टिक के दोनों तरफ बाढ़ और सूखे की फ्रिक्वेंसी भी। बहुत से लोगों के लिए यह बहुत परेशान करने वाली स्थिति है।
इस पिघलाव के संदर्भ में देखें तो आइस शीट की सिकुड़ने की दर में 1990 के दशकों से 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 1994 और 2017 के बीच 28 खरब बर्फ का नेट नुकसान हुआ है। इस नुकसान का आधा, दुनिया में सबसे बड़ी, अंटार्कटिका की विशाल बर्फीली चादर और दुनिया के पहाड़ी ग्लेशियरों ने भुगता है।
नुकसान और तबाही का सिलसिला
एक के बाद एक भरभराकर गिरते जाने का सिलसिला जिसे डोमिनो अफेक्ट भी कहते हैं, चिंताजनक है। दुनिया का एयरकंडिश्नर कहे जाने वाले आर्कटिक में और जगहों की अपेक्षा तापमान दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है। वहां गर्मी सिर्फ बर्फ को नहीं गला रही है। वो जेट स्ट्रीम कहे जाने वाले वायु प्रवाहों को भी कमजोर कर रही है। दूसरे शब्दों में मौसम के लिहाज से यह और बुरी खबर है।
यूरोप और उत्तरी अमेरिका को हाल के वर्षों में भीषण ठंडा कर रही ध्रुवीय इलाकों में ऊपरी वायुमंडल में चलने वाली तेज चक्रीय हवाओं यानी ध्रुवीय भंवर (पोलर वोरटेक्स) का संबंध कमजोर पड़ी ध्रुवीय जेट स्ट्रीम से है। यही परिदृश्य 'द डे आफ्टर टुमॉरो' फिल्म में अचानक छा गए हिम युग के जरिए दिखाया गया है।
तपती हुई धरती में ठंडक स्वागतयोग्य है लेकिन यहां एक पेंच है: आर्कटिक क्षेत्र भी गरम हो रहे हैं। जिसका मतलब है कि वो बर्फ- जिसका काम सूरज की ऊर्जा को धरती से दूर रिफलेक्ट करने का है- वो बहुत ज्यादा नहीं बची है, लिहाजा समंदर उस गरमी को सोख रहे हैं। तभी कोई अचरज नहीं कि 2018 में अलास्का से लगे बेरिन समुद्र में सर्दियों की बर्फीली चादर पिछले 5 हजार साल से भी ज्यादा समय के न्यूनतम स्तर पर थी।
जैवविविधता की बर्बादी और बिखराव
मछली, समुद्री पक्षी, सील और पोलर भालू की रिहाइशें भी बर्फ के साथ गायब हो रही हैं। आर्कटिक क्षेत्र के मूल आदिवासी जो बर्फ से जमे हुए ईकोसिस्टम में शिकार कर लेते थे। वे भी तबाह हो रहे हैं। उनके घर समन्दर में डूब रहे हैं, क्योंकि बर्फ की किल्लत से तटों में धंसाव हो रहा है।
सही है कि यह दुनिया का बहुत कम आबादी वाला भाग है। लेकिन साईबेरियाई टुंड्रा क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट (बर्फीली मिट्टी वाली जमीन) में तेज गति से हो रहे पिघलाव को भी देखना चाहिए। दुनिया के सबसे विशाल कार्बन सिंक में से एक है टुंड्रा। और वो अब मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों को रिलीज कर रहा है, जो कि उस बर्फीली मिट्टी के भीतर लंबे समय से कैद थी।
कुछ वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि शताब्दी के अंत तक 40 प्रतिशत पर्माफ्रॉस्ट वाले इलाके गायब हो जाएंगे। इसका मतलब यह है कि वे खुद को बचाए नहीं रख पाएंगे बल्कि कार्बन डाय ऑक्साइड को भी रिलीज करेंगे। और यह उससे ज्यादा ही होगी जो इस समय वायुमंडल में पहले से मौजूद है। वैश्विक तापमान सुलग रहा है, लिहाजा बर्फ की विदाई भी तय जान लीजिए। इस सूरत में लौटते हैं उस समस्या की तरफ जो दिख तो रही है लेकिन सबने उससे मुंह फेरा हुआ है: समुद्र के जलस्तर में वृद्धि।
समंदरों के जलस्तर की अनदेखी
सबसे बुरा क्या हो सकता है, पहले यही देखते हैं। और याद रखिए इस मामले में गलती बर्फ की उन विशाल चादरों और जमीन के उन महाग्लेशियरों की ही मानी जाएगी। अगर तेजी से सिकुड़ रही अन्टार्कटिक की बर्फीली चादर पूरी तरह से पिघल जाती है, तो दुनिया के समंदरों का जलस्तर 60 मीटर यानी करीब 200 फुट ऊपर उठ जाएगा। यह तबाहकुन महायुद्ध वाली स्थिति होगी और लंदन, वेनिस, मुंबई और न्यूयॉर्क एक्वेरियम बन जाएंगे।
घबराइये मत। ऐसा कुछ हालफिलहाल में नहीं होने जा रहा है। लेकिन अगर जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए उत्सर्जनों में पर्याप्त कटौती नहीं की गई, तो कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि महासागर इस शताब्दी के अंत तक 2 मीटर तो निश्चित रूप से ऊपर उठ जाएंगे। यह जलस्तर समुद्री सतह से 5 मीटर नीचे बसर करने वाले कई करोड़ों लोगों को डुबो देने के लिए काफी होगा। 35 करोड़ लोगों की आबादी जो समुद्री सतह से कुछ मीटर ऊपर रहती है, उसे तटीय बाढ़ों से बचने के लिए दूसरी जगहों को विस्थापित होना पड़ेगा।
ढह रही हैं पानी की मीनारें
हो सकता है ऐसा हो जाए। लेकिन इससे बात खत्म नहीं होगी। दुनिया के पर्वत ग्लेशियर जिनकी संख्या अंदाजन दो लाख के करीब है, वे भी तेजी से पिघल रहे हैं। बर्फ उनमें उतना नहीं जम रही जितना कि उनसे पिघल रही है। समस्या यह है कि वे सिर्फ धरती का 0.5 प्रतिशत भू-भाग ही कवर करते हैं लेकिन वे पानी की मीनारें भी कहलाते हैं और दुनिया की करीब एक चौथाई आबादी को ताजा पानी मुहैया कराते हैं।
ग्लेशियर उन नदियों का भी पोषण करते हैं जिनसे उस फसल की सिंचाई होती है जिसपर एशिया, दक्षिणी अमेरिका और यूरोप के लाखों करोड़ों लोगों का जीवन टिका हुआ है। लिहाजा उन ग्लेशियरों के बिना तो बहुत से लोग भूख और प्यास से तड़प जाएंगे। वैज्ञानिकों का कहना है कि पानी की इन मीनारों के सिकुड़ने से 2 अरब लोग जलसंकट से घिर जाएंगे।
इस समय, चिली के सांटियागो जैसे शहर पीने के पानी की अपनी सप्लाई के एक बड़े हिस्से को सूखता हुआ देखने को विवश हैं, क्योंकि नजदीकी एंडीज पर्वत के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समूचे यूरोप को ताजा पानी मुहैया कराने वाली आल्प्स पर्वत ऋंखला की बर्फ 1900 से अब तक करीब आधा सिकुड़ चुकी है और अगर बढ़ते तापमान पर काबू नहीं पाया गया, तो शताब्दी के अंत तक आल्प्स लगभग बर्फविहीन हो जाएगा।
पिघलाव की प्रक्रिया पर अंकुश चाहिए
वैश्विक तपिश की तरह पिघलाव को कम करने का सबसे सही तरीका है वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को भड़काने वाले कार्बन से वायुमंडल को प्रदूषित न करना। जाहिर है एक रात में तो इस प्रक्रिया को उलटा नहीं जा सकता। अगर कल के दिन दुनिया के सारे लोग जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल बंद भी कर दें, तो दुनिया में बचे हुए ग्लेशियरों में से एक तिहाई फिर भी गायब होंगे ही होंगे।
इसलिए अगर ध्रुवों की और ग्लेशियरों की बेशकीमती बर्फ की कुछ मात्रा बचानी है, तो हमें तीन डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान नहीं बढ़ने देना है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अगर सरकारें जलवायु लक्ष्यों को तेज नहीं करती हैं, तो यह वृद्धि अवश्यंभावी है। फर्ज कीजिए कि दुनिया 2050 तक कार्बनमुक्त हो जाती है तो भी शताब्दी के अंत तक करीब एक-तिहाई ग्लेशियरों को बचाना ही संभव है। हमारे व्यक्तिगत कार्बन फुटप्रिंट में कटौती के लिए सरकारों की कार्रवाई के साथ साथ एक आला दर्जे की प्रतिबद्धता भी चाहिए।
भविष्य अनिश्चित है। लेकिन अगर पिघलाव की प्रक्रिया जल्द से जल्द धीमी नहीं पड़ी, तो तबाही का डरावना मंजर दिखाने वाली फिल्में आने वाली पीढ़ियों को इतनी बचकाना नहीं लगेंगी।