आंकड़े बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद भी देश के 75 फीसदी कोयला बिजलीघर 2022 तक सल्फर नियंत्रक टेक्नोलॉजी नहीं लगा पाएंगे। इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने थर्मल पॉवर प्लांट्स के संगठन एसोसिएशन ऑफ पॉवर प्रोड्यूसर्स (एपीपी) की उस याचिका को खारिज किया जिसमें बिजलीघरों को सल्फर नियंत्रण टेक्नोलॉजी लगाने के लिए समय सीमा 2024 तक बढ़ाने की मांग की गई थी।
इन पॉवर कंपनियों को अपने बिजलीघरों से निकलने वाले धुएं में सल्फर डाई ऑक्साइड (SO2) को रोकने के लिए एक टेक्नोलॉजी लगानी है लेकिन एक बार समयसीमा में राहत दिए जाने के भी बाद इक्का-दुक्का यूनिट्स को छोड़कर बिजली कंपनियों ने यह टेक्नोलॉजी नहीं लगाई है और वे इस नाकामी के लिए पैसे और तकनीकी दिक्कतों को वजह बता रही हैं।
क्या नुकसान है SO2 का?
सल्फर डाई ऑक्साइड कोयला बिजलीघरों से निकलने वाली एक हानिकारक गैस है, जो फेफड़ों की कई बीमारियों का कारण बनती है। आज दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में 20 से अधिक शहर भारत के हैं। इस वजह से कोयला बिजलीघरों के लिए प्रदूषण नियंत्रक टेक्नोलॉजी लगाना और भी महत्वपूर्ण है।
पिछले साल नासा के आंकड़ों के अध्ययन के आधार बनाई एक रिपोर्ट में पर्यावरण के मुद्दों पर काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय एनजीओ ग्रीन पीस ने कहा था कि SO2 उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया में सबसे आगे है। भारत में करीब 60 प्रतिशत बिजली कोयले से ही बनती है इसलिए इन पॉवर प्लांट के लिए सख्त नियम जरूरी हैं।
सरकार ने 5 साल पहले दिया था आदेश
सल्फर गैसों का उत्सर्जन रोकने के लिए जो टेक्नोलॉजी इन बिजलीघरों को लगानी है, उसे फ्लू गैस डीसल्फराइजेशन (एफजीडी) कहा जाता है। चीन के ज्यादातर बिजलीघरों में यह टेक्नोलॉजी लग चुकी है जिससे वहां वायु प्रदूषण पर काबू करने में बहुत मदद मिली है।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 2015 में सभी पॉवर प्लांट्स को 2 साल के भीतर यानी दिसंबर 2017 तक ये टेक्नोलॉजी लगाने को कहा लेकिन बाद में बिजली मंत्रालय के अनुरोध पर सुप्रीम कोर्ट ने यह समयसीमा बढ़ा दी। तब कोर्ट के आदेश के बाद दिल्ली-एनसीआर के बिजलीघरों को दिसंबर 2019 और देश के बाकी बिजलीघरों को 2022 तक यह टेक्नोलॉजी लगानी थी।
लेकिन सच यह है कि हरियाणा स्थित 1 पॉवर प्लांट को छोड़कर किसी भी बिजलीघर ने इस साल जनवरी तक यह टेक्नोलॉजी नहीं लगाई थी। आज पूरे देश में आधा दर्जन से भी कम बिजलीघर यूनिटों में यह टेक्नोलॉजी लगी है।
क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पड़ेगा कोई असर?
सुप्रीम कोर्ट ने भले ही पॉवर कंपनियों के लिए तय साल 2022 की वर्तमान समय सीमा को बढ़ाने से मना कर दिया है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर पॉवर प्लांट अगले 2 साल में भी एफजीडी नहीं लगा पाएंगे। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण यानी सीईए की वेबसाइट पर उपलब्ध ताजा आंकड़े बताते हैं कि अभी तक 441 में से कुल 4 इकाइयों में ही यह टेक्नोलॉजी लगी है और कुल 100 इकाइयों ने एफजीडी लगाने के ठेके दिए हैं। यानी 2022 तक जितनी यूनिटों में यह टेक्नोलॉजी लगनी है उनमें से एक चौथाई से कम ने अब तक इसे लगाने के लिए ठेके दिए हैं।
पॉवर सेक्टर और वायु प्रदूषण पर नजर रखने वाली संस्था सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के विश्लेषक सुनील दहिया कहते हैं कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खुश हैं लेकिन बिजली कंपनियों ने एफजीडी लगाने की दिशा में इतनी कम तरक्की की है कि आज के हालात को देखते हुए बहुत सारी कंपनियां इस टेक्नोलॉजी को 2022 तक नहीं लगा पाएंगी।
सीईए ने खुद कहा है कि ठेका दिए जाने के बाद इस टेक्नोलॉजी को लगाने में 2 साल लगते हैं। इस हिसाब से देखें तो 75 प्रतिशत बिजलीघर यूनिटों में यह टेक्नोलॉजी लगाने के लिए अब तक ठेके ही नहीं दिए गए हैं। इसलिए मुझे नहीं लगता ये बिजलीघर नियमों का पालन कर पाएंगे।
राज्यों ने एक भी बिजलीघर में नहीं लगाई टेक्नोलॉजी
जिन 441 यूनिट्स को यह प्रदूषण नियंत्रक टेक्नोलॉजी लगानी है, उनमें से 149 केंद्र सरकार और 159 राज्य सरकार की हैं। बाकी 133 इकाइयां निजी पॉवर कंपनियों की हैं।
-केंद्र ने अब तक केवल 2 यूनिट्स में ही यह टेक्नोलॉजी लगाई है और कुल 73 यूनिट्स में एफजीडी लगाने के ठेके दिए हैं।
-राज्य सरकार ने 159 में किसी भी यूनिट में अब तक एफजीडी नहीं लगाया है और केवल 7 यूनिट्स के लिए ही ठेके दिए हैं।
-उधर निजी कंपनियों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। निजी कंपनियों की कुल 133 यूनिट्स में से 2 इकाइयों में ही एफजीडी लगा है जबकि कुल 20 यूनिट्स के लिए ही अब तक ठेके दिए गए हैं।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरन्मेंट (सीएसई) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश के 70 फीसदी कोयला बिजलीघर 2022 तक नियमों का पालन नहीं कर पाएगें। सीएसई की रिपोर्ट में बताया गया है कि कोयला न केवल सल्फर के उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है बल्कि सारे उद्योगों के लिए इस्तेमाल हो रहे पानी का 70 फीसदी इसी में खर्च होता है।
सीएसई की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोयला बिजलीघरों के लिए साल 2015 में तय किए गए नियम वैश्विक मानदंडों के हिसाब से हैं। अगर इन नियमों का पालन किया जाए तो हवा में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) में 35 प्रतिशत तक कमी आ सकती है, सल्फर डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 80 फीसदी कम हो सकता है और नाइट्रोजन से जुड़ा प्रदूषण 42 प्रतिशत घट सकता है।
महत्वपूर्ण है कि देश के अत्यधिक प्रदूषित (क्रिटिकली पॉल्यूटेड) कहे जाने वाले इलाकों में बने राज्य और केंद्र सरकार की किसी यूनिट में यह टेक्नोलॉजी अब तक नहीं लगी है। वायु प्रदूषण पर शोध कर रही सीएसई की डिप्टी प्रोग्राम मैनेजर एस. रामानाथन कहती हैं कि यह बहुत ही हैरान करने वाला है कि सरकार जो नियम बना रही है, सरकारी कंपनियां ही उनका पालन नहीं कर रही हैं।
रामानाथन ने डीडब्ल्यू हिन्दी से बातचीत में कहा कि कोई भी बिजलीघर 4 से 5 साल में तैयार हो जाता है। ये कंपनियां अब तक 5 साल पहले बनाए गए नियमों के मुताबिक टेक्नोलॉजी नहीं लगा पाई हैं। हैरान करने वाली बात है कि पॉवर कंपनियां देश की सबसे बड़ी अदालत को वचन देती हैं और फिर उसका पालन नहीं करती। ये एक तरह से पूरी व्यवस्था का मजाक है। (फ़ाइल चित्र)