भारत की दो तिहाई आबादी जेल से भी कम जगह में रह रही है। छोटे होते मकानों और रहने वालों की बढ़ती तादाद के कारण लोगों की रिहायश सिमटती जा रही है। हालत ये है कि देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा जेल में एक कैदी के लिए तय की गई मानक जगह से भी कम में गुजारा करने को मजबूर है। जगह की कमी शहरों में भी है और ग्रामीण क्षेत्रों में भी।
जनसंख्या के लिहाज से भारत एक बड़ा देश है लेकिन अधिकांश जनसंख्या मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। यहां तक कि देश की एक बड़ी आबादी ताउम्र ऐसे घरों में रहने को मजबूर है जो जेल की कोठरी से भी छोटी है। यह चौंकाने वाले तथ्य नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के ताजा सर्वे में सामने आए हैं।
मॉडल प्रिजन मैनुअल 2016 के मुताबिक जेल की कोठरियों के लिए 96 वर्ग फुट जगह तय की गई है जबकि भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले करीब 80 फीसदी लोग औसतन 94 वर्ग फीट या उससे कम जगह में जीवन बिता रहे हैं। वैसे, जेल में कैदियों की संख्या अधिक होने के कारण उन्हें भी निर्धारित जगह से कम में गुजारा करना पड़ता है।
क्या कहती है रिपोर्ट
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के 69वें राउंड सर्वे रिपोर्ट के जरिए यह खुलासा हुआ है कि देश में लोगों के घर और जेल के कमरे एक बराबर हैं। सर्वे रिपोर्ट और मॉडल प्रिजन मैनुअल 2016 की तुलना करने पर आवास परिस्थितियों के संबंध में यह निष्कर्ष निकला है। रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 80 फीसदी गरीब ग्रामीण परिवारों के घरों का औसत जमीनी क्षेत्र 44.9 वर्ग फुट से कम या इसके बराबर है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में औसत घरेलू परिवार में 4.8 लोग होते हैं। इसका सीधा अर्थ यही हुआ कि प्रति व्यक्ति 94 वर्ग फुट या उससे कम जगह उपलब्ध है। ये जेल के कमरे के लिए निर्धारित की गई जगह से भी कम है। जेल के कमरे के लिए निर्धारित जगह 96 वर्ग फुट क्षेत्र है।
शहरी क्षेत्रों में गरीब परिवारों की बात करें तो 60 प्रतिशत लोग जिन मकानों में रहते हैं वह बहुत ही छोटे होते हैं। इन मकानों में औसतन 380 वर्ग फुट या उससे कम जमीनी क्षेत्र है। यहाँ औसत घरेलू आकार 4.1 सदस्यों का है, यानि परिवार के प्रति सदस्य के लिए 93 वर्ग फीट या उससे कम जगह उन्हें मिलती है। यानी शहरी गरीब भी जेलखाने में कैदी को मुहैया किए जाने वाले क्षेत्रफल से कम जगह में रहने को मजबूर है।
दलित और आदिवासियों की स्थिति
रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि दलितों और आदिवासियों की हालत और भी खराब है। गरीब राज्यों में दलितों और आदिवासियों को रहने के लिए काफी कम जगह है। अनुसूचित जाति में प्रति व्यक्ति 70.3 वर्ग फुट जबकि आदिवासियों की स्थिति थोड़ी बेहतर है। इस वर्ग के पास प्रति व्यक्ति 85.7 वर्ग फुट जगह है जिसमें उसे गुजारा करना होता है।
इसके अलावा 20 फीसदी सबसे गरीब परिवारों के प्रति सदस्य को शहरी क्षेत्रों में 75 वर्ग फीट और ग्रामीण क्षेत्रों में 78 वर्ग फुट का क्षेत्र रहने के लिए है। अमीरों की बात करें तो ग्रामीण क्षेत्रों के 32 फीसद धनी परिवारों के प्रति सदस्य 102 वर्ग फुट और शहरी क्षेत्रों में इनके लिए 135 वर्ग फुट का क्षेत्र उपलब्ध है।
समस्याओं का घर
मुंबई जैसे शहरों में ऐसे बहुत से परिवारहैं जो 150-200 वर्ग फुट में गुजारा करने को मजबूर हैं। कई परिवार ऐसे भी हैं जिनमें प्रति व्यक्ति बमुश्किल 50 वर्ग फुट जगह ही मिलता है। ऐसे घरों में मुसीबत एक बिन बुलाए मेहमान की तरह आती जाती रहती है। खासतौर पर स्वास्थ और प्राइवेसी की समस्या इन छोटे घरों में पायी जाती है।
बारिश के दिनों में एक दूसरे से संक्रमण फैलना आम है। 150 वर्ग फुट के फ्लैट में अपने 2 किशोर बच्चों और पति के साथ रहने वाली अमृता ताई कहती हैं, "हर बारिश में परिवार के सभी सदस्यों को बारी बारी वायरल बुखार होता है।'' इसी तरह के छोटे फ्लैट में रहने वाले अंकित जाधव कहते हैं कि बीमारी से ज्यादा चिंता उन्हें प्राइवेसी की है, इसके चलते संबंधों में खटास भी आ जाता है।वे कहते हैं कि, मोबाइल पर बात भी करना हो तो सड़क पर जाना पड़ता है।
बहरहाल इन लोगों के पास छोटी जगह ही सही पर सिर पर छत तो है। एक अनुमान के मुताबिक देश में दो करोड़ से अधिक लोग छत के लिए मोहताज हैं। वैसे सरकार का दावा है कि वह 2022 तक सबको मकान मुहैया कराने के लक्ष्य पर काम कर रही है।