सुंदरबन में इंसानों व बाघों के बीच टकराव रोकने की पहल

DW
सोमवार, 24 अगस्त 2020 (13:53 IST)
रिपोर्ट प्रभाकर मणि तिवारी
 
पश्चिम बंगाल के सुंदरबन इलाके में इंसानों और जानवरों के बीच तेज होते टकराव का शिकार दर्जनों लोग होते हैं। लोगों को बाघ के जबड़ों से बचाने के लिए वन विभाग ने मछुआरों को पोर्टेबल गैस सिलेंडर देने की पहल की है।
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मछुआरों को गैस सिलेंडर देने की इस पहल का मकसद ये है कि मछुआरे लकड़ी लेने जंगल में नहीं जाएं और बाघ का शिकार न बनें। ज्यादातर लोग नाव से मछली पकड़ने के दौरान जलावन के लिए लकड़ी लेने की खातिर जंगल में जाने पर बाघ के शिकार हो जाते हैं। ऐसे हादसों में हर साल दर्जनों लोग असमय ही मौत के मुंह में समा जाते हैं। लेकिन अब इस ताजा पहल से इलाके में उम्मीद की किरण पैदा हुई है। फिलहाल एक गैरसरकारी संगठन सोसायटी पर हेरिटेज एंड इकोलॉजिकल रिसर्चेज (शेर) की सहायता से 100 मछुआरों को ऐसे सिलेंडर दिए गए हैं।
 
बढ़ता संघर्ष
 
पश्चिम बंगाल और पड़ोसी बांग्लादेश की सीमा पर 4,262 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह इलाका इन बाघों के अलावा अपनी जैविक विविधताओं के लिए भी मशहूर है। बाघों को 'सुंदरबन का रक्षक' कहा जाता है। लेकिन सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुकसान हो रहा है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं और मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैन्ग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। इस इलाके को दुनिया में रॉयल बंगाल टाइगर यानी बाघों का सबसे बड़ा घर भी कहा जाता है।
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आबादी के बढ़ते दबाव और पर्यावरण असंतुलन की वजह से से सिकुड़ते जंगल के चलते सुंदरबन की विभिन्न बस्तियों में रहने वाले लोग और बाघ एक-दूसरे से रोजाना जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। सुंदरबन इलाके में कुल 102 द्वीप हैं। उनमें से 54 द्वीपों पर आबादी है। मछली मारना और खेती करना ही उनकी आजीविका के प्रमुख साधन हैं। हाल में एक अध्ययन में इलाके के मैन्ग्रोव जंगलों के तेजी से घटने पर चिंता जताते हुए कहा गया है कि यही स्थिति रही तो वर्ष 2070 तक सुंदरबन में बाघों के रहने लायक जंगल ही नहीं बचेगा।
जंगल में अवैध प्रवेश
 
सुंदरबन इलाके में बाघों के जंगल से निकलकर इंसानी बस्तियों में आने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सुंदरबन में हर साल औसतन 35 से 40 लोग बाघ के शिकार बन जाते हैं। लेकिन स्थानीय लोग कहते हैं कि इलाके में हर साल अममून 100 से ज्यादा लोग बाघ के जबड़ों में फंसकर जिंदगी गंवा देते हैं। दरअसल, वन विभाग सुंदरबन में हर साल लगभग 40 लोगों को जंगल से शहद इकट्ठा करने और मछली पकड़ने का परमिट देता है। लेकिन पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों में जलावन की लकड़ियों और दूसरे वन उत्पादों को एकत्र करने व मछली पकड़ने जाते हैं।
 
सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी कहते हैं कि बाघों के हमले की ज्यादातर घटनाओं की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराई जाती। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोग बिना किसी परमिट या मंजूरी के ही गहरे जंगल में घुसते हैं इसलिए ऐसे मामलों की सही तादाद बताना मुश्किल है।
 
क्यों बढ़ रहा है टकराव?
 
वन विभाग की ओर से गठित एक विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सुंदरबन से सटी बंगाल की खाड़ी का जलस्तर और पानी में खारापन बढ़ने, बाघों के शिकार की जगह लगातार घटने और पसंदीदा भोजन नहीं मिलने की वजह से बाघ भोजन की तलाश में इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं। सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक अधिकारी बताते हैं कि बाघ तभी जंगल से बाहर निकलते हैं, जब वे बूढ़े हो जाते हैं और जंगल में आसानी से कोई शिकार नहीं मिलता।
 
प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व फील्ड डायरेक्टर प्रणवेश सान्याल इसके लिए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को जिम्मेवार ठहराते हैं। वे कहते हैं कि सुंदरबन के जिस इलाके में बाघ रहते हैं, वहां पानी का खारापन बीते 1 दशक में 15 फीसदी बढ़ गया है इसलिए बाघ धीरे-धीरे इंसानी बस्तियों में पहुंचने लगे हैं। दक्षिण 24 परगना जिले के आरामपुर गांव में एक बुजुर्ग मोहम्मद शफीकुल कहते हैं कि यहां बाघों का निवाला बनना ही हमारी नियति है। घर में बैठे रहें तो भूख से मर जाएंगे और जंगल में जाएं तो बाघ हमें नहीं छोड़ेगा। उनके 3 पुत्र भी असमय ही बाघ का निवाला बन चुके हैं।
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ताजा पहल
 
अब इंसानों और जानवरों के बीच लगातार तेज होते संघर्ष पर कुछ हद तक अंकुश लगाने के लिए वन विभाग ने बीते सप्ताह बाघों के संरक्षण के हित में काम करने वाले संगठन 'शेर' के साथ मिलकर करीब 100 मछुआरों को पोर्टेबल गैस सिलेंडर बांटे हैं ताकि वे जलावन के लिए लकड़ी लेने जंगल न जाएं और उनको बाघों का निवाला नहीं बनना पड़े। सुंदरबन टाइर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर तापस दास बताते हैं कि इलाके में कुल 500 लोगों को ऐसे सिलेंडर दिए जाएंगे। पहले चरण में 100 लोगों को यह दिया गया है।
 
गैरसरकारी संगठन 'शेर' के महासचिव जयदीप कुंडू बताते हैं कि हालात से मजबूर होकर मछुआरे लकड़ी लेने जंगल में जाने पर बाघ के शिकार बन जाते हैं। इस सिलेंडर के जरिए उनको अब खतरा नहीं उठाना होगा। इससे इंसानों और बाघों के बीच संघर्ष की घटनाएं रोकी जा सकेंगी। पर्यावरण विशेषज्ञों ने इस पहल का स्वागत किया है। सुंदरबन इलाके पर लंबे अरसे से शोध करने वाले कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान अध्ययन संस्थान के निदेशक डॉ. सुगत हाजरा कहते हैं कि यह पहल सराहनीय है लेकिन इलाके के तमाम लोगों को इसके दायरे में लाना होगा तभी उसी स्थिति में इसका लाभ होगा। इलाके में इंसानों और बाघों के बीच संघर्ष अब चिंताजनक स्तर तक पहुंच गया है।

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