ऑक्सीजन के लिए हांफते देश में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर का बाजार

DW
मंगलवार, 27 अप्रैल 2021 (16:45 IST)
रिपोर्ट: पंकज रामेंदु
 
भारत में लोग जिस तरह ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे हैं, उससे 1971 में लिखी एक किताब 'द लोरेक्स' की कहानी याद आती है। क्या साफ हवा पर भी अब अमीरों का कब्जा होगा? इस पूरी बहस में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर का नाम बार बार आ रहा है।
 
'द लोरेक्स' में दीवारों से घिरा एक शहर है 'थ्नीडविला'। इस शहर में सुविधा के नाम पर हर चीज है। लेकिन यहां पानी से लेकर हवा और पेड़ -पौधे तक सभी चीज नकली है। यहां एक लड़का रहता है टेड, जिसे एक लड़की ऑड्री से प्यार हो जाता है। ऑड्री एक असली पेड़ देखना चाहती है। टेड इस कोशिश में लग जाता है और थ्नीडविला की दीवार लांघने की कोशिश करता है। लेकिन शहर का मेयर, जिसने शहर के चप्पे -चप्पे में कैमरे लगा रखे हैं, वह उसे पकड़ लेता है। टेड उसे समझाने की कोशिश करता है कि वह क्यों जाना चाहता है। थ्नीडविला में उनके काम की हर गैर जरूरी चीज को लगाया गया है।
 
दरअसल मेयर की बॉटल बंद ऑक्सीजन बनाने की कंपनी पूरे प्रदूषित शहर को सांस देती है। और वो अच्छी तरह से जानता है कि पेड़-पौधे, हरियाली उसके धंधे के लिए किस कदर बुरे हैं। उसने पूरे शहर के दिमाग में यह बात भर दी है कि पेड़-पौधे किसी काम के नहीं होते बल्कि नुकसानदायक ही हैं, लेकिन लड़के को उसकी दादी ने बताया है कि विला के बाहर एक ही इंसान है। वन्स-इर, जो बता सकता है कि दुनिया बर्बादी और दलदल में कैसे बदली?
 
टेड को वन्स-इर मिलता है। वह उसे बताता है कि कई सालों पहले यहां बहुत ट्रफुला ( प्रतीकात्मक पेड़) नाम के पेड़ों का घना जंगल और खूब सारे जानवर रहा करते थे। एक युवा वैज्ञानिक उस जंगल में जाकर ट्रुफुला के पेड़ को काटकर उससे थ्नीड नाम की एक चीज बनाना चाहता है, जंगल में रहने वाला लोरेक्स, जो पेड़ों का रक्षक है वह उसका विरोध करता है। लेकिन वन्स-इर उसे समझा लेता है कि वह किसी पेड़ को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, फिर एक वक्त ऐसा आता है जब उसके बनाए थ्नीड की मांग बढ़ जाती है और उसके रिश्तेदार मिलकर पूरा जंगल तबाह कर देते हैं। लोरेक्स सारे जानवरों से कहता है कि वे कहीं दूसरी जगह ठिकाना ढूंढ ले, लोरेक्स भी एक पत्थर पर एक शब्द 'अनलेस' लिखकर गायब हो जाता है। वन्स-इर को पछतावा होता है। वो अपने पास मौजूद आखिरी बीज टेड को सौंपता है और काफी संघर्षों के बाद फिर से थ्नीडविला में पौधे लहलहाने लगते हैं।
 
डॉ. थ्योडोर सॉयस की लिखी किताब 'द लोरेक्स' पर 2012 में इसी नाम से एक एनिमेशन फिल्म बनाई गई थी। आप जानते हैं कि 1989 में इस किताब को कैलिफोर्निया में प्रतिबंधित कर दिया गया था। अन्य वजहों के साथ इस किताब पर ये भी आरोप लगे कि वन्स-इर को एक लालची अमेरिकी के तौर पर प्रस्तुत किया गया था और ये कहानी उपभोक्तावाद की गलत कहानी प्रस्तुत करता है। इस कहानी में एक शब्द इस्तेमाल हुआ था, 'थ्नीड'। जानते हैं थ्नीड का अर्थ क्या होता है? थ्नीड का अर्थ होता है, ऐसी चीज जिसका ये कहकर विज्ञापन किया जाए की ये हर इंसान की जरूरत है। यूं कहिए कि इसके बगैर इंसान का गुजारा ही नहीं है। अगर हम पिछले एक साल में अपनी जिंदगी को देखें तो आपको पता चलेगा कि किस तरह हम अपने इर्द-गिर्द थ्नीड से घिरे हुए हैं। हम ना चाहते हुए थ्नीडविला में रहने लगे हैं। पिछले साल के कोरोना से हमने कोई सबक नहीं लिया और इस साल उसका कहर ज्यादा बुरी तरह बरप रहा है। और हम आपदा में अवसर तलाश रहे हैं। ऐसा ही एक नया बाजार जल्दी ही खड़ा होने वाला है।
 
नए थ्नीड की आहट
 
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा,जब दिल्ली सहित भारत के तमाम बड़े शहर प्रदूषण की समस्या से जूझते नजर आ रहे थे। और हर कोई प्रदूषण की बात कर रहा था और पीएम वैल्यू पर चर्चा कर रहा था। और पीएम के स्तर के साथ रेडियो-टेलीविजन पर आवाजें गूंज रही थी कि 'क्या आपका इस आबोहवा में सांस लेना दूभर हो गया है, तो आज ही ले आइए। फलाना कंपनी का एयरप्यूरीफायर' शुद्ध हवा की गारंटी, अब खुल के सांस लेना हुआ आसान। प्रदूषण के स्तर ने एक नए बाजार को खोला और देशभर में एयर प्यूरीफायर धड़ल्ले से बिकने लगे।
 
इसका नतीजा यह हुआ कि कई कंपनियां इस कारोबार में कूद पड़ीं। इसकी सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जीरो से शुरू हुआ ये कारोबार आज 200 करोड़ से भी ऊपर पहुंच चुका है। यही नहीं, इन्हें बेचने वाली कंपनी तो ये दावा तक करने लगीं कि इस उद्योग की वार्षिक वृद्धि दर 45 फीसद है, जिसकी बढ़कर 55-60 फीसद तक जाने की उम्मीद है। ये कारोबार और फलता फूलता, लेकिन इसी बीच कोरोना ने दस्तक दे दी। दुनिया थम सी गई और पिछले साल विश्व भर में प्रदूषण में काफी कमी देखने को मिली।
 
किसी ने 2021 की शुरुआत में यह सोचा भी नहीं था कि कोरोना एक बार फिर से पैर पसारेगा। और हालात ऐसे बन जाएंगे कि जिस देश की सत्ता ने यह घोषित कर दिया था कि हमने कोरोना को हरा दिया, वह देश ऑक्सीजन की कमी से जूझता नजर आएगा। हम इतने लाचार कभी नहीं रहे, जितने आज खड़े हुए हैं। लोग कोरोना से नहीं ऑक्सीजन जैसी बुनियादी जरूरत की वजह से मर रहे हैं। लेकिन इस आपदा ने भी एक नए बाजार की नींव रख दी है और उपभोगी समाज अब जल्दी ही उसे अपनाएगा और फिर धीरे-धीरे बाजार उसे पानी, हवा की तरह ही जरूरी बता कर घर घर पहुंचा देगा। और वो चीज है ऑक्सीजन कंसंट्रेटर।
 
ऑक्सीजन कंसंट्रेटर क्या है?
 
यह कम्प्यूटर मॉनिटर से थोड़ा ही बड़ा होता है। आज जब पूरे भारत में ऑक्सीजन सिलेंडर को लेकर त्राहिमाम मचा हुआ है और कहीं भी वक्त पर ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पा रही है। ऐसे में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर, ऑक्सीजन थैरेपी के लिए एक बेहतर विकल्प बताया जा रहा है। खासकर उन लोगों के लिए जो होम आइसोलेशन में हैं।
 
ऑक्सीजन कंसंट्रेटर एक मेडिकल डिवाइस है, जो आस-पास की हवा को इकट्ठा यानी संघनीकरण करता है। वातावरण में मौजूद हवा में 78 फीसद नाइट्रोजन, 21 फीसद ऑक्सीजन और बाकी बची एक फीसद दूसरी गैस होती हैं। ऑक्सीजन कंसंट्रेटरवातावरण से हवा को लेकर उसे एक छननी के माध्यम से फिल्टर करता है और ऑक्सीजन को एकत्रित करके उसमें घुली नाइट्रोजन और दूसरी गैस को बाहर निकाल देता है। फिर ऑक्सीजन कम्प्रेस्ड होकर एक नली के जरिये 90-95 फीसद शुद्ध ऑक्सीजन तैयार होकर वितरित हो जाती है।
 
ऑक्सीजन कंसंट्रेटर में लगा प्रेशर वॉल्व ऑक्सीजन के वितरण को नियंत्रित करता है और इस तरह प्रति मिनट 1-10 लीटर ऑक्सीजन मिलती रहती है। 2015 की डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक कंसंट्रेटर लगातार काम जारी रखने के लिए तैयार किया गया है और यह 24 घंटे सातों दिन करीब 5 साल तक लगातार काम कर सकता है।
 
क्या ये काम करेगा?
 
हालांकि लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन यानी एलएमओ की तरह ये 99 फीसद शुद्ध तो नहीं होती है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि हल्के और हल्के-तीव्र कोविड मामलों में ये कारगर है। खासकर उनके लिए जिनका ऑक्सीजन सेचुरेशन स्तर 85 या उसके ऊपर आ रहा हो। खास बात ये है कि कोविड के अलावा दूसरे मामलों में जहां संक्रमण का खतरा नहीं हो, वहां एक कंसंट्रेटर से दो लोगों को साथ में ऑक्सीजन मुहैया कराई जा सकती है।
 
सिलेंडर ऑक्सीजन की तुलना में कंसंट्रेटर एक सहज उपाय है, लेकिन ये एक मिनट में 5 से 10 लीटर ऑक्सीजन प्रदान कर सकता है। जबकि गंभीर रूप से बीमार मरीजों को प्रति मिनट 40 से 50 लीटर ऑक्सीजन की जरूरत होती है। इसलिए अभी इसे हल्के लक्षण वाले मरीजों के लिए सही माना जा रहा है। इसकी अच्छी बात ये है कि इसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है। और एलएमओ की तरह ऑक्सीजन को लाने ले जाने के लिए क्रायोजेनिक टैंकर की जरूरत नहीं रहती है। साथ ही सिलेंडर की तरह इसे बार बार भरवाने का झंझट नहीं रहता है। बस इसे चलाने के लिए बिजली की जरूरत होती है।
 
कीमत और बाजार
 
एक ऑक्सीजन सिलेंडर की कीमत 8,000 से 20,000 रुपए तक होती है जबकि इसकी तुलना में कंसंट्रेटर की कीमत 40 हजार से 90 हजार रुपए होती है। हालांकि यह एक बार का ही निवेश होता है। फिर इसमें पांच साल तक बिजली के अलावा कोई दूसरा खर्चा नहीं आता। उद्योग विशेषज्ञों का मानना है कि कंसंट्रेटर की मांग जो पहले प्रति साल 40 हजार थी, वह अब बढ़कर 30 हजार से 40 हजार प्रति माह तक आ पहुंची है। वर्तमान में हर दिन 1000 से 2000 कंसंट्रेटर की मांग आ रही है, लेकिन औद्योगिक इकाई नहीं होने की वजह से यह मांग भी पूरी नहीं हो पा रही है। वर्तमान में भारत में इसे पूरी तरह से विदेशों से मंगाया जा रहा है।
 
जिस तरह से देश को आत्मनिर्भर बनाने की कवायद चल रही है और मरीज से लेकर तीमारदार ऑक्सीजन से लेकर इलाज तक की व्यवस्था खुद करने में जुटा हुआ है, ऐसे में हो सकता है जल्दी ही कंसंट्रेटर भी भारत में बनने लगे और सरकारें इसके लिए भी अपनी पीठ थपथपाती नजर आएं।
 
इस तरह कुछ ही सालों में हम थ्नीडविला की तरह पेड़ों से शुद्ध हवा की तुलना में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर की हवा को बेहतर बनाने में तुले हों और कई कंपनियां ज्यादा शुद्ध ऑक्सीजन देने का दावा करती हुई होड़ लगा रही हों। यही नहीं भारत का उच्च मध्यमवर्गीय तबका जो जमाखोरी का पर्याय है, उनके घरों में एयरप्यूरीफायर की जगह ऑक्सीजन कंसंट्रेटर ले ले। गरीब तो तब भी पेड़ के नीचे बैठ कर ही हवा खा रहा होगा।

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