पाकिस्तान की ताकतवर सेना को पठानों का एक संगठन चुनौती दे रहा है। पाकिस्तानी सेना का आरोप है कि पख्तून तहफ्फुज मूवमेंट अफगानिस्तान के कहने पर पाकिस्तान को अस्थिर करना चाहता है लेकिन पठानों का तर्क कुछ और है।
पाकिस्तान में यह नया आंदोलन देश के पठान बहुल पश्चिमोत्तर इलाके से उठा है। इसके समर्थकों में इस बात को लेकर गुस्सा है कि दशकों तक उनके इलाके को मैदान-ए-जंग की तरह इस्तेमाल किया गया। इसके लिए वे जिहादियों और पाकिस्तानी सेना दोनों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
पिछले 2 साल में पख्तून तहफ्फुज मूवमेंट (पीटीएम) को खासा समर्थन मिला है। उसकी रैलियों में दसियों हजार लोग जमा होते हैं। उसके समर्थक आतंकवाद विरोधी युद्ध की आलोचना करते हैं। उनके मुताबिक इसी की वजह से पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों ही देशों में पख्तून इलाकों को रौंदा गया है।
हाल में पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल आसिफ गफूर ने पीटीएम के नेतृत्व पर देश के खिलाफ काम करने का आरोप लगाया। उनका कहना है कि पीटीएम को भारत और अफगानिस्तान की खुफिया एजेंसियों से पैसा मिल रहा है। एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने पीटीएम नेतृत्व को चेतावनी दी, 'जिस तरह से वे दूसरों के हाथों में खेल रहे हैं, उनका समय पूरा हो गया है।'
दूसरी तरफ, पुलिस ने पीटीएम के पदाधिकारी और सांसद अली वजीर और 11 अन्य लोगों के खिलाफ पाकिस्तानी राष्ट्र और सेना के खिलाफ नारेबाजी के आरोप में एफआईआर दर्ज की है। रिपोर्ट में कहा गया है, 'वक्ता लोगों को सेना के खिलाफ भड़का रहे थे और देश की सुरक्षा को कमजोर करने की कोशिश कर रहे थे।'
पीटीएम चाहती है कि आतंकवाद विरोधी युद्ध के नाम पर पख्तूनों का अपहरण और उनकी एक्स्ट्रा ज्यूडिशल हत्याएं बंद हों। इस मांग से हजारों पख्तून सरोकार रखते हैं। पीटीएम के समर्थक अपने इलाके की बर्बादी के लिए पाकिस्तानी सेना और इस्लामी कट्टरपंथियों दोनों को जिम्मेदार मानते हैं।
युद्ध से जूझ रहे अफगानिस्तान में अब भी बड़े इलाके पर अफगान और पाकिस्तान तालिबान कब्जा है जिन्हें अफगान सरकार और अमेरिका के मुताबिक पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई से समर्थन मिल रहा है।
अफगान सीमा से लगने वाले पाकिस्तान के इलाके अब भी हिंसा और अशांति झेल रहे हैं। इसकी वजह एक तरफ जिहादियों की गतिविधियां हैं तो दूसरी तरफ उनके खिलाफ पाकिस्तान सेना के अभियान। इससे वहां मौतें हो रही हैं और लोग इलाके को छोड़कर भाग रहे हैं।
पीटीएम के संस्थापक मंजूर पश्तीन ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि उनके संगठन के खिलाफ पाकिस्तानी सेना के आरोप बिलकुल बेबुनियाद हैं। वे कहते हैं, 'वे हम पर दबाव डालना चाहते हैं ताकि हम अपनी मांगों को छोड़ दें। हम सरकार से बातचीत करने को तैयार हैं।' वे पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता के आरोपों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी भी देते हैं।
दूसरी तरफ, सैन्य जनरलों का कहना है कि पाकिस्तानी सेना ने आतंकवाद विरोधी युद्ध में जो 'कुर्बानियां' दी हैं, पीटीएम उनका सम्मान नहीं कर रही है।
वॉशिंगटन स्थित वूड्रो विल्सन सेंटर फॉर स्कॉलर्स में दक्षिण एशिया विशेषज्ञ मिषाएल कूगलमन कहते हैं, 'जनरल गफूर के शब्दों और लहजे से पीटीएम के प्रति सख्त रवैये का पता चलता है। इससे पहले पीटीएम की गतिविधियों और उसकी मीडिया कवरेज को सीमित करने की कोशिशें हो चुकी हैं।'
अफगान सरकार ने भी पश्तीन की मुहिमों का समर्थन किया है। आमतौर पर अफगान सरकार पाकिस्तान की अंदरुनी राजनीति पर टिप्पणी करने से बचती है। लेकिन अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने फरवरी 2018 में हुए 'पख्तून मार्च' से जुड़े कई ट्वीट शेयर किए थे। उन्होंने यह भी उम्मीद जताई कि क्षेत्र को आतंकवाद से मुक्ति मिलेगी।
1947 में पाकिस्तान बनने के बाद से ही पख्तून देश के लिए एक संवेदनशील मुद्दा रहे हैं। पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा के दोनों तरफ बड़ी संख्या में पख्तून आबादी रहती है। पाकिस्तान शुरू से ही पख्तून बहुल एक अलग देश के विचार को खारिज करता रहा है। कुछ विश्लेषक कहते हैं कि पाकिस्तानी अधिकारी इलाके में इस्लामीकरण के जरिए 'पख्तूनिस्तान' के आंदोलन को दबाना चाहते हैं। इस आंदोलन का नेतृत्व उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष राजनेता और कार्यकर्ता कर रहे हैं।
हो सकता है कि पाकिस्तान की सरकार पीटीएम को सीमा के दोनों तरफ रहने वाले पख्तूनों को एकजुट करने की कोशिश के तौर पर देखती हो। हालांकि पीटीएम ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है। इस्लामाबाद में रहने वाले रिसर्चर और सामाजिक कार्यकर्ता सलीम शाह कहते हैं, 'क्या पीटीएम सीमा के आर-पार रहने वाले पख्तूनों को एकजुट कर सकती है? मेरे ख्याल से उसने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है। तालिबान की जन्मस्थली रहे अफगान शहर कंधार में कई जगहों पर उनकी रैलियां हुई हैं। इसके अलावा जलालाबाद और काबुल में भी पीटीएम के समर्थक हैं। आम अफगान शांति के नारे बुलंद कर रहे हैं।'
पाकिस्तानी सेना को ललकारता युवा पश्तून
लेकिन क्या अफगान सरकार की तरफ से पीटीएम की तारीफ का यह मतलब है कि वह पीटीएम को आर्थिक मदद दे रही है। सीमा और कबायली मामलों के पूर्व अफगान मंत्री गफूर लिवाल कहते हैं, 'अफगान लोग सिर्फ नैतिक आधार पर पीटीएम का समर्थन कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि पाकिस्तानी सेना पख्तून बहुल इलाकों में क्या कर रही है। लेकिन अफगान सरकार इस आंदोलन को किसी तरह का वित्तीय समर्थन नहीं दे रही है।'
वहीं काबुल में रहने वाले एक लेक्चरर जबी सादत का कहना है कि पाकिस्तानी सेना पीटीएम जैसे शांतिपूर्ण आंदोलनों के खिलाफ कार्रवाई कर अपने युद्ध अपराधों से ध्यान हटाना चाहती है। लेकिन कुछ अन्य जानकारों की राय है कि पीटीएम को अफगान सरकार की तरफ से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मदद इस संगठन को ही नुकसान पहुंचाएगी। काबुल में रहने वाले विश्लेषक युनास फाकुर कहते हैं, 'जो कुछ भी अफगान सरकार कर रही है उसका उल्टा असर हो सकता है, क्योंकि पाकिस्तान इसे तालिबान का समर्थन करने के लिए बहाने के तौर पर इस्तेमाल करेगा।'
इस बीच पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता का यह भी कहना है कि मतभेदों के बावजूद वे पीटीएम की मांगों पर ध्यान देने की कोशिश कर रहे हैं। आसिफ गफूर ने कहा कि उनकी ज्यादातर मांगें पूरी की जा चुकी हैं जिसमें कबायली इलाकों में बिछी बारूदी सुरंगों को हटाना भी शामिल है। उन्होंने कहा कि इन्हें हटाने के काम में 101 सैनिकों को जानें गंवानी पड़ी।
सेना के समर्थकों का कहना है कि पीटीएम नेतृत्व अधिकारियों के साथ सहयोग नहीं कर रहा है और सिर्फ हंगामा करना चाहता है। पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर जिले कुर्रम में रहने वाले अकबर अली कहते हैं, 'पीटीएम पाकिस्तानी सेना को बदनाम करने की कोशिश कर रही है। असल में पश्तीन खुद इस इलाके में शांति नहीं चाहते जिसे सेना ने इतनी कुर्बानियों के बाद बहाल किया है।'