महाकुंभ में मिल सकता है वर्क-लाइफ बैलेंस का दर्शन

DW

सोमवार, 13 जनवरी 2025 (09:39 IST)
- चारु कार्तिकेय
कुंभ मेले में संन्यासियों के अलावा लाखों आम लोग भी महीने भर तक रहने आते हैं। सामान की बड़ी गठरी लिए मेले में पहुंचे इन कल्पवासियों के मन की हालत शायद हमेशा काम में डूबे रहने की सलाह देने वाले कॉर्पोरेट लीडर समझ ना पाएं। कई साधु-संत अपने भक्तों समेत कुंभ स्थल पर पहुंच चुके हैं। सर्दियों के जाने और बसंत के आने के बीच के इस मौसम में मेलों के आयोजन की भारत के कई राज्यों में परंपरा है। प्रयागराज में भी हर साल संगम के तट पर माघ मेले का आयोजन किया जाता है। 

सिर पर सामान लिए कुंभ मेले में पहुंचे कल्पवासी
महीने भर कुंभ मेले में ही रहने वाले कल्पवासी पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक यहीं रहेंगे। 13 जनवरी से शुरु होकर 45 दिन चलने वाले महाकुंभ मेले ने कई हफ्तों की तैयारी के बाद आखिरकार पूरी तरह रूप ले लिया है। यूपी के प्रयागराज में करीब 20 वर्ग किलोमीटर में फैला एक अस्थाई शहर बसाया गया है। गंगा के ऊपर कई पीपा पुल बन चुके हैं। रेत और लोहे की चादरें डालकर सड़कें बनाई गई हैं, ताकि लोगों के साथ गाड़ियां भी चल सकें।
 
संतों के शिविर बन चुके हैं और कई संत अपने-अपने भक्तों के साथ इनमें पहुंच भी चुके हैं, लेकिन संन्यासियों की मीडिया कवरेज की चकाचौंध के परे देखिए तो आपको नजर आएंगे सिरों पर और बगल में गठरियां दबाए मेले में चले आ रहे लाखों 'कल्पवासी'।
 
आस्था का उत्सव
कल्पवासी पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक यहीं रहेंगे। अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए एक महीने तक वे गंगा के किनारे ही सामान्य शिविरों में रहेंगे, रोज सुबह संगम में डुबकी लगाएंगे, दिन में सिर्फ एक बार भोजन करेंगे, पूजा करेंगे, संतों की बातें सुनेंगे और कल्पवास का अंत होने पर जो भी यहां लेकर आए थे उसे दान कर लौट जाएंगे।
 
महाकुंभ मेले के दौरान लाखों लोग संगम में स्नान करने पहुंचते हैं। इस बार 45 दिन तक चलने वाले महाकुंभ मेले के दौरान लाखों लोग संगम में स्नान करने पहुंच सकते हैं। मेले से 25000 करोड़ रुपयों की कमाई होने का जो अनुमान है, वो एक तरह से इन्हीं कल्पवासियों की आस्था पर टिका है।

संगम तक पहुंचने के लिए नाव वालों की कमाई भी इन्हीं से होगी, अर्पण करने के लिए चढ़ावा भी ये ही खरीदेंगे, नाश्ते के स्टॉल से कचोरियां और चाय भी इन्हीं के दम पर बिकेंगी और ठेलों पर से पेठे, रेवड़ी और गजक भी ये ही लेंगे।
 
मोटी कमाई लग्जरी टेंटों से और कमरों का किराया कई गुना बढ़ा चुके होटलों से जरूर होगी, लेकिन उनका इस्तेमाल करने वाले जिस मेले का आनंद लेने आए हैं, उस मेले का अस्तित्व कल्पवासियों की आस्था से है। लेकिन जरा कल्पना कीजिए कि कल्पवासी भी अगर अपना पूरा साल अपने-अपने काम को ही समर्पित कर दें और कल्पवास का यह एक महीना कुंभ के लिए नहीं निकालें, तो क्या होगा?
 
माघ मेलों का दर्शन
क्या हफ्ते के सातों दिन दफ्तर में काम करने की सलाह देने वाले बड़ी बड़ी कंपनियों में बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोग एक मेले को एक महीने का समय देने की इस तत्परता को समझ पाएंगे? इसी तत्परता में अध्यात्म के अलावा कहीं ना कहीं वर्क-लाइफ बैलेंस का संदेश भी छिपा है।
 
कई साधु-संत अपने भक्तों समेत कुंभ स्थल पर पहुंच चुके हैं। सर्दियों के जाने और बसंत के आने के बीच के इस मौसम में मेलों के आयोजन की भारत के कई राज्यों में परंपरा है। प्रयागराज में भी हर साल संगम के तट पर माघ मेले का आयोजन किया जाता है। यही माघ मेला हर 12 सालों पर कुंभ मेले का रूप ले लेता है, जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने अब महाकुंभ का नाम दे दिया है।
 
यह सर्दियों की फसल की कटाई और गर्मियों की फसल की बोआई के बीच का समय होता है। किसान परिवार इस समय को अगले कृषि मौसम के लिए खुद को तैयार करने में बिताते हैं और मेलों में शामिल होना इस तैयारी का हिस्सा रहा है।
 
कल्पवासी एक महीने तक गंगा के किनारे आम शिविरों में रहने के लिए काफी सामान लेकर पहुंचते हैं। कल्पवासी एक महीने तक गंगा के किनारे आम शिविरों में रहते हैं, रोज सुबह संगम में डुबकी लगाते हैं, दिन में सिर्फ एक बार भोजन करते हैं और कल्पवास खत्म होने पर बाकी सामान दान कर लौट जाते हैं, क्योंकि मेलों का मतलब है काम से ब्रेक लेना, अपनों के साथ समय बिताना, हंसना, बोलना, नाचना, गाना और जीवन के उन पहलों से एक बार फिर रूबरू होना जिनसे जीवन की आपाधापी में संपर्क टूट जाता है।
 
इस संपर्क को दोबारा बनाने को आज खुद को रिचार्ज करना कहा जाता है, लेकिन माघ मेलों की परंपरा में इस रिचार्ज का दर्शन सदियों से घुलामिला हुआ है।

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी