बूचड़खानों पर सख्ती और उद्योगों पर चोट

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017 (11:58 IST)
भारतीय राजनीति में धार्मिक कट्टरता के दखल और प्रतीकों के दबाव की समकालीन विडंबना का ताजा उदाहरण है- बूचड़खानों पर कार्रवाई, गाय से जुड़ा उन्माद और आस्था का अतिरेक। अपने ब्लॉग में बता रहे हैं शिव प्रसाद जोशी।
 
इन फैसलों से एक साथ डेयरी, चमड़ा, कपड़ा, मीट और होटल उद्योगों पर गाज गिरी है। जिसे धर्म, पशु-प्रेम, भावना आदि बताया जा रहा है, उसे एक फलते फूलते स्वदेशी आत्मनिर्भर सामुदायिक औद्योगिक ढांचे पर गहरी चोट के रूप में भी देखा जा रहा है।
 
यूपी, हरियाणा, झारखंड, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बीजेपी सरकारें गोकशी के लिए सख्त से सख्त कानून बना रही है, सख्त से सख्त भाषा का इस्तेमाल बीजेपी के नेता कर रहे हैं। खबरों के मुताबिक, एक तरफ हिंसा पर उतारू हिंदूवादी स्वयंभू गौरक्षक हैं, जो हमलावर हो चुके हैं, जान लेने से भी नहीं हिचक रहे हैं। तो दूसरी तरफ, गोवा और पूर्वोत्तर के कुछ राज्य हैं जहां बीजेपी सरकारों और उनके बगलगीर संगठनों को गोकशी पर कोई ऐतराज नहीं है। ऐसा वहां कानूनन जायज है। केरल मे तो एक कदम आगे बढ़कर बीजेपी नेता ने वोट देने की गुहार लगाते हुए साफसुथरे बूचड़खानों से साफ ताजा बीफ उपलब्ध कराने का वादा तक कर डाला।
 
फिलहाल समाज की लिबरल आवाजें सहमी हुई हैं। कौन कब किस बात पर भड़क उठे कहना कठिन है। आखिर बूचड़खानों को लेकर अचानक ये आग क्यों फैली है। ये बूचड़खाने और बड़ा मांस का कारोबार तो सदियों से चला आ रहा है। आजाद भारत में भी इस कारोबार को लेकर कोई रोकटोक कभी नहीं रही। बूचड़खानों के पास लायसेंस होने ही चाहिए, उनमें सफाई और हाईजीन का सर्वोपरि ख्याल भी रखा जाना निहायत जरूरी है। लेकिन इसे सुनिश्चित किये जाने के तौर-तरीके और प्रावधान हैं, उन्हें अपनाइये। एकतरफा और आपात कार्रवाई करने से शक होता है कि इसके पीछे गाय के प्रति आस्था है या किसी वर्चस्व की राजनीति।
 
भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार और मध्यकालीन और प्राचीन भारत के अध्येता, डीएन झा ने अपनी दस्तावेजी किताब 'द मिथ ऑफ द होली काऊ' में प्रामाणिक साक्ष्यों के हवाले से बताया है कि प्राचीन समय में हिंदू और बौद्ध समुदाय बीफ का सेवन करते थे। 18वीं और 19वीं सदी में आकर ही गाय को पवित्र जानवर का दर्जा हासिल हुआ था। आज भी आदिवासी और दुर्गम पहाड़ी, ठंडे इलाकों में मांस स्वाभाविक आहार का हिस्सा है। हिंदुओं में कई पंथ ऐसे हैं जहां जानवरों की बलि प्रथा रही है। पहाड़ी इलाकों में भी भैंस, बकरे और भेड़ की बलि दी जाती रही है। कई इलाकों में ये प्रथाएं जागरूकता आने के बाद कम हुई हैं। अंधविश्वास के रूप में इनका न होना अलग बात है लेकिन स्वाभाविक अनिवार्य आहार, पोषण और कारोबार में बड़े मांस का उपयोग दूसरी बात है। इसे धर्म से जोड़कर कुतर्कों का एक बड़ा जाल तो खड़ा कर सकते हैं लेकिन इससे समाज की भलाई सुनिश्चित नहीं की जा सकती।
 
भारतीय ग्राम्य जीवन में गाय सबसे महत्त्वपूर्ण पशुधन रहा है। मान्यताएं और आस्थाएं भी हैं। लेकिन आज गायों की हालत किसी से छिपी नहीं है। तो भी नैतिकता की पहरेदारी चल रही है, उससे पशुपालक डरे हुए हैं, अपनी बेकार गायों को वे ढोने पर मजबूर हैं। या उन्हें खदेड़ दे रहे हैं। देश के कई हिस्सों में शहरों में आवारा गायें प्लास्टिक और अन्य कचरा खाकर बीमार पड़ जाती हैं या दम तोड़ देती हैं। दूध और दूध उत्पादों की ज्यादा से ज्यादा मात्रा और ज्यादा से ज्यादा मुनाफे के लिए बड़े पैमाने पर कराए जा रहे कृत्रिम गर्भाधान ने दुधारू पशुओं को लाभ की मशीन में बदल दिया है और एक अवश्यंभावी दुर्दशा की ओर धकेल दिया है। उन्हें कहने को ताकत और प्रोटीन के इंजेक्शन दिए जाते हैं लेकिन उनसे होने वाले नुकसान के अध्ययनों को भी व्यापक किए जाने की जरूरत है।
 
पशुपालन अब न सिर्फ आर्थिक रूप से कठिन हुआ है बल्कि अब कानून और उसकी आड़ में गौ रक्षकों की हिंसा के डर ने किसानों को डेयरी उद्योग से भी दूर करना शुरू कर दिया है। आने वाले समय में संभव है कि विदेशी दुग्ध उत्पाद भारतीय बाजारों पर पूरी तरह कब्जा कर लें। इस तरह आत्मनिर्भरता कैसे बचेगी। एक जीवंत और सहज पारस्परिकता सामाजिक गतिविधि इस तरह ठप कर दी जाएगी। मरी गायों का चमड़ा निकालना भी अब जोखिम भरा हो गया है। उधर बड़े मांस के रुप में सबसे ज्यादा खपत भैंस के मीट की रही है। 2015-16 में भारत ने भैंस का दस लाख टन से ज्यादा मीट और उससे जुड़े उत्पादों का 26 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का निर्यात किया। मीट इंडस्ट्री से ही जुड़ा चमड़ा उद्योग भी है। भैंस का मीट, प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत भी है। हजारों होटलों में इसे कबाब और करी के रूप में तैयार किया जाता है। गरीबों के लिए ये आज भी एक जीवनदायी आहार है। इस तरह ये चारों उद्योग, लाखों लोगों को जीवन और रोजगार देते आए हैं।
 
जीडीपी में आकर्षक उछालों के बावजूद रोजगार विहीन वृद्धि का आखिर क्या मतलब। संभावनाशील क्षेत्रों पर एक के बाद एक बेरोजगारी की मार तो एक बड़ी विकट स्थिति की ओर देश को धकेल रही है। इस खतरे की अनदेखी को नादानी भी तो नहीं कह सकते।
 
रिपोर्ट:- शिवप्रसाद जोशी

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