तो क्या कुछ ही सालों में खत्म हो जाएंगी सुंदरबन की मछलियां?

Webdunia
गुरुवार, 3 मई 2018 (10:23 IST)
सुंदरबन जैसे तटीय इलाकों में ग्लोबल वार्मिंग और मौसम का मिजाज बदलने को कारण मछलियों का ही नहीं, इंसानों का वजूद भी खतरे में। क्या मशहूर सुंदरबन की खासियतें इतिहास में ही सिमट कर रह जाएंगी?
 
 
भारत और बांग्लादेश की सीमा पर बंगाल की खाड़ी और गंगा के मुहाने पर बसे सुंदरबन में ग्लोबल वार्मिंग के चलते होने वाले बदलावों की खबरें कोई नई नहीं हैं। तमाम शोधकर्ता और वैज्ञानिक विभिन्न अध्ययनों के बाद पहले से ही इलाके के पानी में बढ़ते खारापन, तेजी से कटते मैंग्रोव जंगल और समुद्र का जलस्तर बढ़ने की वजह की वजह से इलाके के द्वीपों, इंसानों और जीवों की विभिन्न प्रजातियों पर मंडराते खतरों के बारे में आगाह करते रहे हैं। लेकिन अब तक इन खतरों से निपटने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई है।
 
 
अब कलकत्ता विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की एक टीम ने चेताया है कि पानी में बढ़ते खारेपन की वजह से इलाके में पाई जाने वाली मछलियों का चरित्र बदल रहा है और साथ ही उनके प्रजनन पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है। फिश एंडोक्राइनोलाजिस्ट सुमन भूषण चक्रवर्ती और विश्वभारती विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की एक टीम ने चेताया है कि अगर यही स्थिति जारी रही तो बंगाल में पाई और खाई जाने वाली कई मछलियां जल्दी ही गायब हो जाएंगी।
 
 
प्रजनन के तरीके में बदलाव
जलवायु परिवर्तन में होने वाले बदलावों की वजह से मछलियों की जैविक संवेदनशीलता पर पड़ने वाले असर का अध्ययन करने वाली इस टीम ने कहा है कि सुंदरबन में बढ़ते तापमान और पानी में बढ़ते खारेपन की वजह से मछलियों के प्रजनन का तरीका बदल रहा है। इससे उन मछलियों की तादाद पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। नतीजतन एक दिन इन मछलियों का वजूद ही खत्म हो सकता है।
 
 
10 हजार वर्गकिलोमीटर में फैला सुंदरबन दुनिया में मैंग्रोव का सबसे बड़ा जंगल है। बंगाल की खाड़ी में बसा सुंदरबन गंगा के अलावा, ब्रह्मपुत्र व मेघना नदियों के मुहाने से घिरा है। देश के पूर्वी तट पर पाई जाने वाली मछलियों की 90 फीसदी प्रजाति यहीं मिलती है। मछली व झींगा के उत्पादन के मामले में यह इलाका शीर्ष पर है। बंगाल के कुल उत्पादन का 31 फीसदी महज सुंदरबन स्थित दो जिलों उत्तर व दक्षिण 24 परगना में ही होता है।
 
 
शोधकर्ताओं की टीम ने इलाके में मछलियों की पांच प्रजातियों टेंगरा, पाबदा, खोलसे, दारी और रांगा पर ग्लोबल वार्मिंग के असर का अध्ययन किया। इस टीम ने हाल में यहां भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई) में आयोजित एक कार्यक्रम में अपने अध्ययन का सार पेश किया।
 
इस टीम के अगुवा सुमन भूषण चक्रवर्ती कहते हैं, "बीते तीन दशकों खासकर वर्ष 2009 में आए आइला तूफान के बाद मछलियों की कुछ प्रजातियों की तादाद में तेजी से कमी आई है। समुद्री जल के तापमान में वृद्धि व पानी में बढ़ते खारेपन की वजह से कई मछलियों के वजूद पर खतरा बढ़ रहा है।" वह कहते हैं कि कुछ मछलियां तो इन बदलावों के प्रति खुद को ढालने में सक्षम हैं। लेकिन बंगाल में सबसे ज्यादा खाई जाने वाली मछलियों की पांच प्रजातियों पर खतरा सबसे ज्यादा है।
 
 
चक्रवर्ती बताते हैं कि पानी का तापमान बढ़ने की वजह से मछलियां गहरे पानी की ओर जा रही हैं। नतीजतन कुछ खास इलाकों में नर व मादा का अनुपात गड़बड़ा रहा है। इसका असर उनके प्रजनन के तरीके और सीजन पर पड़ रहा है। चक्रवर्ती की टीम ने अपने अध्ययन के दौरान पूरे साल सुंदरबन के तीन अलग-अलग स्थानों से हर महीने मछलियों के नमूने जमा किए। उन मछलियों में विभिन्न एंटी-ऑक्सीडेंट और डीटॉक्सीफिकेशन एनजाइमों को मापा गया। इससे एक चार्ट बना कर उनके चरित्र में आने वाले बदलावों को समझने में सहायता मिली।
 
 
शोध का मकसद
चक्रवर्ती बताते हैं, "हमारा मकसद विभिन्न एंजाइमों और हार्मोन बायोमार्करों के आधार पर एक कंप्यूटेशनल मॉडल विकसित करना है। इससे इस बात का विश्लेषण करने में सहायता मिलेगी कि पर्यावरण के बदलते मानदंडों का मछली की किसी खास प्रजाति पर कितना असर पड़ रहा है और वह इन बदलावों से निपटने में किस हद तक कामयाब रहेगी।" वह कहते हैं कि इस अध्ययन से भविष्य में मछलियों की अहम प्रजातियों के प्रजनन की रणनीति तय करने में सहायता मिल सकती है।
 
 
इससे मछलियों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण में तो मदद मिलेगी ही, व्यावसायिक रूप से मछली पालन पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर से निपटने की कारगर रणनीति भी तैयार की जा सकेगी। इस अध्ययन में कहा गया है कि विभिन्न मछलियों में जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने की क्षमता भी अलग-अलग होती है। मिसाल के तौर पर खोलसे और रासबोरा जैसी मछलियां इन बदलावों के प्रति खुद को ढालने में काफी हद तक सक्षम हैं। लेकिन पाबदा प्रजाति के लिए तापमान की वृद्धि मुश्किलें पैदा कर देती हैं। तामपान में बढ़ोतरी से उनका सफाया होने का अंदेशा है। अध्ययन में कहा गया है कि इलाके के विभिन्न द्वीपों पर बने दशकों पुराने तटबंधों की मरम्मत कर द्वीप के तालाबों और इलाके की छोटी नदियों के पानी को खारा होने से काफी हद तक रोका जा सकता है। इसके अलावा किनारों पर ऐसे पौधे लगाए जा सकते हैं जो नमक के कुप्रभाव को सोख सकें।
 
 
तेज होता विस्थापन
सुंदरबन जैसे तटीय इलाकों में ग्लोबल वार्मिंग और मौसम का मिजाज बदलने की वजह से मछलियों ही नहीं, इंसानों का वजूद भी खतरे में है। लगातार डूबते द्वीपों के चलते इलाके के लोग पर्यावरण के शरणार्थी बनने पर मजबूर हैं। लेकिन इस लगातार गंभीर होती समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस नीति बनाना तो दूर, अब तक इस दिशा में कोई पहल तक नहीं हुई है। आने वाले वर्षों में यह समस्या काफी गंभीर होने का अंदेशा है।
 
 
कोलकाता में जादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्री अध्ययन संस्थान के निदेशक सुगत हाजरा कहते हैं, "यह पर्यावरण में हो रहे बदलावों का नतीजा है। सुंदरबन में लोहाचारा समेत दो द्वीप समुद्र में डूब गए हैं। समुद्र के लगातार बढ़ते जलस्तर व प्रशासनिक उदासीनता के कारण सुंदरबन का 15 फीसदी हिस्सा वर्ष 2020 तक समुद्र में समा जाएगा।" वह बताते हैं कि यहां समुद्र का जलस्तर 3।14 मिमी सालाना की दर से बढ़ रहा है। इससे कम से कम 12 द्वीपों का वजूद संकट में है।
 
 
सुंदरबन के गड़बड़ाते पर्यावरण संतुलन पर व्यापक शोध करने वाले आर मित्र कहते हैं, "ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से सुंदरबन इलाके का पर्यावरण संतुलन लगातार गड़बड़ा रहा है। इससे इंसानों के साथ जीवों की तमाम प्रजातियों पर खतरा लगातार बढ़ रहा है।


पर्यावरणविदों का कहना है कि महज अध्ययन से समस्या नहीं सुलझाई जा सकती। इसके लिए तमाम अध्ययन रिपोर्टों के आधार पर विशेषज्ञों और गैर-सरकारी संगठनों की एक टीम बना कर सिफारिशों पर गंभीरता से अमल करना जरूरी है। ऐसा नहीं हुआ तो अपनी जैविक और वानस्पतिक विविधता के लिए मशहूर सुंदरबन की खासियतें इतिहास में सिमट कर रह जाएंगी।
 
रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता

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