भारत में केरल अकेला राज्य है, जहां डॉक्टरों को ब्रेन डेड व्यक्ति को वेंटिलेटर से हटाए जाने का अधिकार है। वहां इस फैसले के बाद ब्रेन डेड व्यक्ति को डॉक्टर परिवार की इच्छा के बगैर भी लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटा सकते हैं।
सितंबर 2018 को दिल्ली से चंडीगढ़ के लिए बाइक पर निकले युवक को नहीं पता था कि आज का दिन उसका आखिरी दिन होने वाला है। जैसे ही वह नेशनल हाईवे की तरफ बढ़ा, पीछे से तेज रफ्तार ट्रक ने उसकी बाइक को लपेट लिया।
जैसे-तैसे उसे अस्पताल पहुंचाया गया। हालत नाजुक थी लेकिन धड़कन चल रही थी। परिवार को सदमा तब पहुंचा, जब डॉक्टरों ने युवक को ब्रेन डेड घोषित कर दिया। उन्हें लगा कि जब दिल की धड़कन चल रही है तो उनका बेटा कैसे दुनिया को अलविदा कह सकता है?
डॉक्टरों ने परिजनों को सारे टेस्ट दिखा दिए, ब्रेन डेड की परिभाषा समझा दी लेकिन उन्होंने सभी तर्कों को नकार दिया। वे उनकी धड़कन पर एतबार कर रहे थे। डॉक्टरों ने उन्हें मरीज के अंगदान करने की सलाह दी लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया।
1 हफ्ता बीत जाने के बाद परिवार कर्ज के बोझ तले दबने लगा था। उन्हें समझ में आने लगा कि अब उनका बेटा वापस नहीं आने वाला लेकिन वे उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटाकर वह 'पाप' नहीं करना चाहते थे।
बेटे को विदा करने में उन्हें 2 हफ्ते और 30 लाख रुपए लग गए। बाद में परिजनों ने मृतक के अंगों को दान करने के लिए हामी भर दी। इस पूरे प्रकरण में डॉक्टर सिर्फ परिवार को समझा सकते थे। कोई भी फैसला लेने के लिए उनके हाथ बंधे हुए थे।
भारत में ब्रेन डेड घोषित व्यक्ति को वेंटिलेटर से हटाना पाप और पुण्य का सवाल बन जाता है। अपने परिजन को अलविदा कहना लोगों के लिए हमेशा कठिन होता है। यह काम और भी कठिन हो जाता है, जब दिल चल रहा हो लेकिन दिमाग नहीं। मस्तिष्क मृत्यु या ब्रेन डेथ को लेकर जहां 50 से ज्यादा देशों में कानून हैं, तो वहीं भारत में डॉक्टर इसको लेकर कानून बनाए जाने की लंबे समय से मांग कर रहे हैं।
जनवरी 2020 में केरल सरकार ने डॉक्टरों को ब्रेन डेड व्यक्ति के परिवार की सहमति के बिना लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटाने का अधिकार दिया है। ऐसा करने से पहले डॉक्टरों को कुछ शर्तों का पालन करना होता है। इस फैसले के बाद केरल ब्रेन डेथ पर नियम और प्रोटोकॉल को परिभाषित करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है।
भारत सरकार के मानव प्रत्यारोपण कानून में ब्रेन डेड होने के बाद भी परिवार जब तक अंगदान के लिए मंजूरी नहीं देता, तब तक मरीज को लाइफ सपोर्ट सिस्टम या वेंटिलेटर से नहीं हटाया जा सकता। ऐसे केस में ब्रेन डेड व्यक्ति लंबे समय तक वेंटिलेटर पर रहता है।
इस निर्णय के साथ ही केरल ने अंगदान की प्रक्रिया को ब्रेन डेड की प्रक्रिया को अलग कर दिया है। अब अगर परिवार ब्रेन डेड परिजन का अंगदान न भी करना चाहे तो भी डॉक्टरों को उसे वेंटिलेटर से हटाने का अधिकार होगा।
केरल ने आईसीयू में ब्रेन डेथ सर्टिफिकेशन के मापदंडों को भी तय कर दिया है। किसी मरीज को ब्रेन डेड घोषित करने के लिए 10 शर्तें तय की गई हैं। 4 स्वतंत्र और अनुभवी डॉक्टरों की टीम हर 6 घंटे में मरीज के ब्रेन स्टेम रिफ्लेक्स का परीक्षण करती है। जरूरी परीक्षण पूरा होने के बाद अगर मरीज ब्रेन डेड के मानदंड को पूरा करता है तो उसे 'ब्रेन डेड' घोषित किया जा सकता है।
डॉक्टरों के लिए ब्रेन डेड होने की तारीख और समय का दर्ज करना जरूरी है। 4 डॉक्टरों की टीम के ब्रेन डेड सर्टिफिकेट पर हस्ताक्षर करने के बाद परिवार को प्रमाण पत्र सौंपा जा सकता है। इसके तुरंत बाद मृतक को वेंटिलेटर से हटाया जा सकता है। ये चारों डॉक्टर अलग-अलग अस्पतालों के अनुभवी न्यूरोलॉजिस्ट या न्यूरोसर्जन डॉक्टर होने चाहिए। प्रमाण पत्र के हस्ताक्षर से जिम्मेदारी भी तय की जा सकेगी।
क्या होता है ब्रेन डेड होना?
व्यक्ति को ब्रेन डेड तब घोषित किया जाता है, जब उसके ब्रेन या ब्रेन स्टेम में कोई न्यूरोलॉजिकल गतिविधि नहीं होती है यानी जब मस्तिष्क की कोशिकाओं के बीच कोई सिग्नल नहीं भेजा जा रहा होता है। कई देशों में इसे कानूनी तौर पर मृत्यु माना जाता है।
ब्रेन स्टेम मस्तिष्क के आधार पर रीढ़ की हड्डी के ऊपर और सेरेब्रम के नीचे होता है जिसका प्रमुख काम होता है मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी के बीच संचार का काम करना। यह दिल और श्वसन प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। यह शरीर को गति और संवेदनाएं देता है।
कोई भी व्यक्ति ब्रेन स्टेम के बिना जीवित नहीं रह सकता। मस्तिष्क स्टेम श्वास, हृदय गति और रक्तचाप को नियंत्रित करता है। इसके अलावा यह चेतना और स्वायत्त कार्यों को नियंत्रित करता है, जो जीवन को बनाए रखने के लिए जरूरी है।
ब्रेन डेथ में ब्रेन स्टेम काम करना बंद कर देता है जिसके बाद ब्रेन डेड व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है। पहले मरीज का मृत्यु प्रमाण पत्र उसके परिजनों को देना डॉक्टरों और अस्पताल प्रबंधन के लिए एक नैतिक दुविधा थी।
केरल में ब्रेन डेड के नियम आने के बाद किसी मरीज को ब्रेन डेड घोषित किए जाने के बाद उसे आधिकारिक तौर पर भी मृत घोषित किया जा सकेगा जिसके बाद उसे कार्डियो रेस्पिरेटरी सपोर्ट सहित सभी उपचार बंद किए जा सकेंगे।
दुनिया के बाकी देशों में क्या हैं नियम?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पाकिस्तान और रोमानिया जैसे देश ब्रेन डेथ को मान्यता नहीं देते। मल्टीऑर्गन फेलियर या दिल की धड़कनों के रुक जाने पर ही किसी को मृत माना जाता है। अमेरिका के 40 राज्यों में ब्रेन डेड को मृत माना जाता है।
ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों में भी स्वतंत्र और अनुभवी डॉक्टर मरीज की जांच के बाद उसे ब्रेन डेड घोषित कर सकते हैं। इसको लेकर कानून तय हैं। जर्मनी में तो ब्रेन डेथ को परिभाषित तक किया गया है।
जर्मन मेडिकल एसोसिशन के मुताबिक ब्रेन डेड सेरेब्रम (ऊपरी मस्तिष्क), सेरिबैलम और ब्रेन स्टेम के कार्यों की अपरिवर्तनीय समाप्ति की एक अवस्था है जबकि दिल को वेंटिलेशन से भी चलाया जा सकता है। जब मस्तिष्क के ये हिस्से काम नहीं करते, तब उसे ब्रेन डेड घोषित कर दिया जाता है।
भारत में भी इसे परिभाषित करने मांग उठ रही है। केरल राज्य के अलावा भारत में और कहीं भी ब्रेन डेथ को परिभाषित नहीं किया गया है। देश में मानव प्रत्यारोपण अधिनियम 1994 में केवल अंगदान का जिक्र है। कानून में इस परिभाषा की वजह से ब्रेन डेथ के बारे में डॉक्टरों में भी भ्रम है। कानून में भी केवल अंगदान की वजह से इसका जिक्र है।
एक मरीज को ब्रेन डेड घोषित किए जाने पर डॉक्टरों को क्या करना चाहिए, इस बारे में कहीं कुछ नहीं बताया गया है या फिर परिवार के अंगदान का विकल्प चुनने से इंकार करने पर क्या करना चाहिए, इस पर भी कुछ स्पष्ट नहीं बताया गया है।
देश में मस्तिष्क की मृत्यु को परिभाषित करने वाले नए और निश्चित कानूनों की आवश्यकता है। इस पर कई शोध भी हुए हैं। एक शोध के मुताबिक ब्रेन डेथ मस्तिष्क के सभी कार्यों की स्थायी समाप्ति है जिसमें अलग-अलग अंग काम कर सकते हैं लेकिन मस्तिष्क काम नहीं करता।
जब दुनियाभर में इस अवधारणा की चिकित्सा और कानूनी स्वीकृति है, तब भी यह अवधारणा भारत में स्पष्ट नहीं है। प्रमाणन की कानूनी प्रक्रिया के बारे में जागरूकता की कमी और संदेह के कारण अक्सर मस्तिष्क की मृत्यु की व्याख्या नहीं की जाती। कई ब्रेन डेड मरीजों को अनावश्यक रूप से लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखा जाता है। यह न केवल परिवार के खर्चे को बढ़ाता है बल्कि परिवार, रोगी और डॉक्टरों के लिए भी एक निरर्थक प्रक्रिया है।