कोविड वैक्सीन के परीक्षण में महिलाएं कहां हैं

DW
शनिवार, 24 जुलाई 2021 (16:40 IST)
रिपोर्ट: चार्ली शील्ड
 
दुनिया भर में पुरुषों की तुलना में महिलाओं में कोविड टीका लगने के बाद अधिक दुष्प्रभावों की रिपोर्ट्स आ रही हैं। हालांकि कोई आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं लेकिन जो भी अध्ययन हैं, उनमें भी लैंगिक आधार पर जांच की उपेक्षा है।
   
कोविड टीकों के गंभीर दुष्प्रभाव की खबरें लगभग नहीं आ रही हैं। अधिकांश लोगों में हल्की-फुल्की दिक्कतें जरूर आती हैं जो कुछ दिनों के बाद गायब हो जाती हैं। मसलन, हल्का बुखार और मांसपेशियों में दर्द। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि ये हमारे शरीर में एक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया बढ़ने के संकेत हैं और यह संकेत देते हैं कि भविष्य में होने वाले संक्रमणों के खिलाफ टीके से हम सुरक्षित रहेंगे।
 
अमेरिका में, स्वास्थ्य अधिकारियों के मुताबिक, टीका ले चुके लोगों में 0।001% से भी कम में इसके गंभीर दुष्प्रभाव देखे गए हैं। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे कि कोविड वैक्सीन के लिए एलर्जी की प्रतिक्रिया होती है। लेकिन लोगों में इसके कुछ हद तक दुष्प्रभाव यानी साइड इफेक्ट्स देखे गए हैं। आंकड़े बताते हैं कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को साइड इफेक्ट्स का अनुभव होने की अधिक संभावना है और यह टीकाकरण के पूरे इतिहास में एक प्रवृत्ति को दर्शाता है।
 
जून महीने में स्विट्जरलैंड सरकार ने आंकड़े जारी किए जिसमें दिखाया गया कि कोविड टीकों के 68।7 प्रतिशत दुष्प्रभाव के मामले महिलाओं में ही आए हैं। अमेरिका में लोगों को दी गई पहली 1।37 करोड़ खुराक के मामलों में यह प्रतिशत 79।1प्रतिशत था जिसमें 61।2 प्रतिशत महिलाओं का टीकाकरण किया गया था। और नॉर्वे में अप्रैल की शुरुआत तक टीकाकरण किए गए 7,22,000 लोगों में साइड इफेक्ट्स के 83 फीसदी मामले महिलाओं में थे। ये तो महज कुछ नमूने हैं। महिलाओं के दुष्प्रभावों पर आंकड़े बहुत कम हैं।
 
लेकिन मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ वियना में एक न्यूरोइम्यूनोलॉजिस्ट मारिया टेरेसा फेरेटी का कहना है कि हमारे पास जो आंकड़े हैं, वो हैरान करने वाले हैं। फेरेटी, महिला मस्तिष्क परियोजना नामक एक गैर-लाभकारी संस्था की संस्थापक भी हैं। वो कहती हैं कि हमें पहले से ही पता था कि टीका लगाने पर पुरुष और महिलाएं अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहती हैं, "अन्य विषाणुओं के टीकों के उदाहरण से, हम जानते थे कि टीका लगने पर महिलाएं अधिक एंटीबॉडी का उत्पादन करती हैं, जिसका अर्थ है कि उन पर दुष्प्रभाव भी अधिक होते हैं।"
 
साल 1990 और साल 2016 के बीच 26 वर्षों के दौरान किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि टीकों के प्रति वयस्कों में 80 फीसद विपरीत प्रतिक्रियाएं महिलाओं की थीं। साल 2009 में स्वाइन फ्लू महामारी के दौरान इस्तेमाल किए गए H1N1 टीके से एलर्जी की प्रतिक्रिया की रिपोर्ट करने की संभावना से महिलाओं में चार गुना अधिक पाई गई थी। अन्य शोधों से पता चला है कि सेक्स हॉर्मोन मानव प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं। एक अधिक मजबूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया यह भी है कि पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं ऑटोइम्यून बीमारियों का विकास क्यों करती हैं, शरीर ओवरड्राइव में चला जाता है, जो वहां होने वाली चीजों पर हमला करता है।
 
जैविक लिंग और लैंगिक बहुलता
 
अमेरिका में जॉन्स हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में स्वास्थ्य शोधकर्ता रोजमेरी मॉर्गन कहती हैं कि यह अंतर इस बात की एक बड़ी तस्वीर का हिस्सा है कि कैसे जैविक सेक्स और लिंग दोनों हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। जबकि महिलाओं को टीकों से अधिक दुष्प्रभाव भुगतने की आशंका होती है, पुरुषों को कोविड के गंभीर मामलों के लिए अस्पताल में भर्ती होने की अधिक संभावना होती है, और पुरुषों में कोविड से मौत की आशंका भी ज्यादा होती है।
 
उदाहरण के लिए, पुरुष प्रतिरक्षा प्रणाली के अपने विशिष्ट मुद्दे हैं जो महिला शरीर पर कम लागू होते हैं। जैसे पुरुषों में पाया जाने वाला टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन प्रतिरक्षा को कमजोर करने वाला हो सकता है। लेकिन लिंगभेद एक सामाजिक मुद्दा है, जो हमारे दिमाग में विचार, लोगों के व्यवहार और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच को भी प्रभावित कर सकता है।
 
उदाहरण के लिए, पुरुष अक्सर दर्द को दबा ले जाते हैं और यही वजह है कि प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं की रिपोर्ट करने की संभावना उनमें कम होती है। डीडब्ल्यू से बातचीत में मॉर्गन कहती हैं, "अध्ययन से पता चलता है कि पुरुषों में मास्क पहनने और हाथ धोने की संभावना कम होती है। यदि आप इसे उनके जैविक जोखिम के साथ जोड़ते हैं, तो यह जटिल मामला है।"
 
कोविड के प्रति इंटरसेक्स, गैर-बाइनरी और ट्रांसजेंडर संवेदनशीलता पर डेटा काफी सीमित हैं, लेकिन कुछ शोध बताते हैं कि लिंग और यौन आधारित अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव का मतलब यह हो सकता है कि वे कोविड से असमान रूप से प्रभावित हैं। और यह पूरी दुनिया में संभव है। शोध से यह भी पता चलता है कि लोगों के कुछ समूहों को महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सुविधाओं से बाहर रखा जा रहा है।
 
महिलाएं, इंटरसेक्स, गैर-बाइनरी, ट्रांस लोग शोध से बाहर
 
फेरेटी का कहना है कि शोधकर्ताओं को बहिष्कार और भेदभाव के प्रभावों पर विचार करना चाहिए जब वे टीके और दवाएं विकसित करते हैं और उनका परीक्षण करते हैं। चाहे वह कोविड हो या फिर कोई अन्य बीमारी। वो कहती हैं, "आपको लगता होगा कि वे इन कारकों पर विचार करेंगे, लेकिन लगता नहीं कि ऐसा वो करेंगे।" जुलाई महीने में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि कोविड-19 के उपचार में लगभग 4500 नैदानिक ​​​​अध्ययनों के एक सेट में से केवल चार फीसद ने सेक्स या लिंग की भूमिका पर विचार करने की योजना की सूचना दी थी।
 
अध्ययनों में टीकों और दवाओं के लिए नैदानिक ​​​​परीक्षणों से लेकर मानसिक स्वास्थ्य पर लॉकडाउन के प्रभावों और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को देखते हुए शोध संबंधी अध्ययन शामिल हैं। ट्रांसजेंडर लोगों पर कोविड के प्रभाव को विशेष रूप से देखने के लिए केवल एक अध्ययन पाया गया। कुछ अध्ययनों में केवल महिलाओं को शामिल किया गया था, और वे मुख्य रूप से कोविड और गर्भावस्था के बारे में थे।
 
दिसंबर 2020 तक प्रकाशित 45 परीक्षणों में से केवल आठ को सेक्स या लिंग के संदर्भ में संदर्भित किया गया। नीदरलैंड में रैडबुड यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के शोधकर्ता सबाीने ओएर्टेल्ट प्रिजिओन कहती हैं कि जल्दी शोध परिणाम देने का वैज्ञानिकों के ऊपर काफी दबाव है। वो कहते हैं, "शोधकर्ता कभी-कभी चिंतित होते हैं कि अध्ययन में लिंग अंतर का विश्लेषण करने का मतलब उनके पास ज्यादा से ज्यादा लोगों के नमूने और उन्हें चुनने के लिए लगने वाला लंबा समय जरूरी है।"
 
संक्रमण के मामलों और टीकाकरण की साधारण गिनती में भी लैंगिक आधार को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। सेक्स, जेंडर और कोविड-19 प्रोजेक्ट नामक एक गैर-लाभकारी संस्था की ओर से किए गए अध्ययन के मुताबिक, केवल 37 फीसद देशों ने कोविड से होने वाली मृत्यु की सूचना दी जो लैंगिक आधार को निर्दिष्ट करता है और जून 2021 के अंत तक टीकाकरण के मामलों में तो सिर्फ 18 फीसद आंकड़ा ही लैंगिक आधार पर तैयार किया गया है।
 
पुरुष शरीर का 'डिफॉल्ट इंसान' के रूप में इस्तेमाल
 
मॉर्गन कहती हैं, "चिकित्सा और नैदानिक ​​अनुसंधान और विश्लेषण में लैंगिक आधार का ऐतिहासिक अभाव रहा है। अमेरिका में साल 1993 तक ऐसा नहीं था कि महिलाओं को नैदानिक ​​परीक्षणों यानी क्लिनिकल ट्रायल्स में शामिल किया जाना अनिवार्य हो।" ऐसा कहा जाता है कि शोधकर्ता इस बात को लेकर चिंतित थे कि महिलाओं के हार्मोन शोध परिणामों को खराब कर देंगे। इसलिए, उन्होंने चिकित्सा अनुसंधान में पुरुष शरीर को "डिफॉल्ट इंसान" के रूप में इस्तेमाल किया।
 
मॉर्गन के मुताबिक, बहुत सारी दवाएं केवल पुरुषों को ध्यान में रखकर दी जाती हैं और इसका मतलब है कि डॉक्टर महिला रोगियों या अन्य गैर-पुरुष लिंगों के लिए दवाओं की सही खुराक को विश्वसनीय रूप से निर्धारित नहीं कर सकते हैं। इसका मतलब यह भी है कि हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते हैं कि संभावित दुष्प्रभावों के कारण कोई महिला कोविड वैक्सीन लेने से हिचकिचा रही है या नहीं। हम निश्चित रूप से नहीं जानते हैं।
 
फेरेटी का कहना है कि यह "उथली दवा" है। यह मुहावरा अमेरिकी हृदय रोग विशेषज्ञ एरिक टोपोल ने गढ़ा है। और फेरेटी का कहना है कि इसे बदलने की जरूरत है और हमें गहराई तक जाने की जरूरत है, "हम मान रहे हैं कि सभी रोगी कमोबेश एक जैसे हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं।"

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