भारत में क्यों बढ़ने लगे हैं डिप्थीरिया के मामले?

DW

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024 (07:41 IST)
रामांशी मिश्रा
पाकिस्तान और भारत में डिप्थीरिया के मामले बढ़ रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि कोविड महामारी के दौरान बच्चों में टीकाकरण पूरा न होने कारण अब ये मामले तेजी से सामने आ रहे हैं।
 
कराची में बच्चों के लिए डिप्थीरिया से बचाव का टीका उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। नतीजतन, वहां 100 से भी अधिक बच्चों को अपनी जान गंवानी पड़ी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पिछले साल पाकिस्तान के सिंध संक्रामक रोग अस्पताल में डिप्थीरिया के 140 मामले दर्ज किए गए थे।
 
इनमें से 52 बच्चों की मौत हो गई थी। वहीं, इस साल 100 से भी अधिक बच्चों की मौत हो गई है। इसका मुख्य कारण यह है कि पूरे सिंध में एंटीटॉक्सिन दवा नहीं मिल रही है।
 
भारत में भी कई मामले
भारत में भी डिप्थीरिया के मामले बढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के संभल जिले में 10 अक्टूबर तक डिप्थीरिया के 39 मरीज अस्पताल पहुंच चुके हैं। इनमें आठ की मौत हो चुकी है। खबरों के अनुसार, संभल के जिला अस्पताल में लाए गए 200 में से दो बच्चों में डिप्थीरिया के लक्षण मिले हैं। इन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया है।
 
इससे पहले अक्टूबर की शुरुआत में ही उत्तर प्रदेश के उरई में डिप्थीरिया के 29 मामले सामने आए थे, जिनमें से तीन बच्चों की मौत हो गई। 6 अक्टूबर को जालंधर के फिरोजपुर में तीन साल की बच्ची में भी डिप्थीरिया के लक्षण पाए गए थे। उसे अस्पताल में भर्ती करवाया गया था, लेकिन दो दिन बाद ही इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। बच्ची की मौत के बाद फिरोजपुर में डिप्थीरिया मामलों की जांच के लिए सर्वे करवाया जा रहा है, जिसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की टीम भी शामिल है।
 
उत्तर प्रदेश और पंजाब के अतिरिक्त राजस्थान के डीग जिले में भी 14 सितंबर से अब तक डिप्थीरिया से ग्रस्त सात बच्चों की मौत हो चुकी है। जिले में स्वास्थ्य विभाग ने हाई अलर्ट जारी कर दिया है और संदिग्ध मरीजों की जांच की जा रही है।
 
गंभीर है डिप्थीरिया
डिप्थीरिया को 'बुल नेक' या 'गलाघोटू बीमारी' भी कहा जाता है। यह एक संक्रामक रोग है। कोरिनेबैक्टीरियम डिप्थीरिया नाम के बैक्टीरिया से होने वाली इस बीमारी के लक्षण सप्ताह भर बाद शुरू होते हैं। आमतौर पर डिप्थीरिया गले और सांस लेने के रास्ते को प्रभावित करता है।
 
गले की ग्रंथियों (टॉन्सिल्स) और नाक पर एक मोटी झिल्ली (मेम्ब्रेन) बन जाती है और गले में सूजन आने लगती है। इसके कारण सांस लेने में परेशानी होने लगती है। इसके लक्षणों में गले में खराश, तेज बुखार, खाना निगलने में परेशानी और कमजोरी शामिल हैं। बीमारी की पहचान समय पर ना हो, तो 30 फीसदी मामलों में स्थिति गंभीर हो सकती है।   
 
वैक्सीन का बूस्टर डोज भी जरूरी
डॉ. श्रीकेश सिंह, लखनऊ के डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में बाल रोग विशेषज्ञ हैं। टीकाकरण के बारे में बात करते हुए उन्होंने डीडब्ल्यू हिन्दी को बताया, "हमारे नेशनल इम्यूनाइजेशन शेड्यूल के मुताबिक, डिप्थीरिया की वैक्सीन (डीपीटी) डिप्थीरिया, पर्टुसिस (काली खांसी) और टेटनस के टीकों के साथ मिलाकर बच्चे को पहली खुराक जन्म के छह हफ्ते पर, दूसरी खुराक 10 हफ्ते और तीसरी खुराक 14 हफ्ते पर दी जाती है। इसके बाद 24 से 36 महीने, यानी दो से तीन साल में पहला बूस्टर डोज, छह साल की उम्र दूसरा और 10 साल की उम्र में तीसरा बूस्टर डोज लगना चाहिए।"
 
इसमें लापरवाही बच्चों के लिए जानलेवा हो सकती है। इस स्वास्थ्य समस्या को टीकाकरण के जरिए रोका जा सकता है, लेकिन अगर टीकाकरण ना हो तो बीमारी इतनी गंभीर हो जाती है कि प्रभावित बच्चों को वेंटिलेटर पर रखने की नौबत आ सकती है। डॉ. श्रीकेश बताते हैं, "शुरुआती तीन से पांच वर्ष तक के बच्चों में टीकाकरण तो पूरा हो जाता है, लेकिन छह और 10 वर्ष की उम्र में लगने वाले बूस्टर डोज को अक्सर माता-पिता भूल जाते हैं या नजरअंदाज कर देते हैं।"
 
डिप्थीरिया में मृत्यु दर काफी अधिक है क्योंकि इसके लक्षण काफी सामान्य होते हैं और इस वजह से बिना जांच के बीमारी पकड़ में नहीं आती। डॉ। श्रीकेश बताते हैं, "डिप्थीरिया के गंभीर होने के बाद फेफड़े, हृदय, मस्तिष्क, गले और लिवर में सबसे ज्यादा परेशानी होती है और सांस आनी बंद हो जाती है। बचाने के लिए ट्रेकियोस्टॉमी (गले की सर्जरी) करने तक की नौबत आती है। यह बीमारी आमतौर पर रैपिड ऑनसेट होती है। इसका अर्थ है कि 24 घंटे के अंदर बीमारी गंभीर हो जाती है।"
 
कोरोना महामारी के कारण अधूरा रहा टीकाकरण
लोहिया संस्थान में ही एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. नेहा राय, इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (आईएपी) द्वारा मान्यताप्राप्त बच्चों के टीकाकरण विशेषज्ञों में से एक हैं।  वह बताती हैं, "कोरोना महामारी के दौरान कई लोग किसी भी तरह का टीकाकरण कराने से बच रहे थे। साल 2020 और 2021 में जन्मे बच्चों में कुछ का टीकाकरण भी अधूरा रह गया था। डिप्थीरिया का टीका ना लगने के कारण अब उन बच्चों में यह संक्रामक रोग तेजी से फैल रहा है।"
 
लखनऊ में भी बड़ी संख्या में बच्चे अस्पतालों के ओपीडी में आ रहे हैं और जांच में डिप्थीरिया की पुष्टि के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती किया जा रहा है। डॉक्टर नेहा अनुमानित तौर पर बताती हैं,  "हमारे पास सितंबर महीने में डिप्थीरिया के 18 संदिग्ध मरीज ओपीडी पहुंचे, गंभीर संक्रमण के 10 मरीज भर्ती हुए। इनमें तीन की मौत हो गई। परेशानी यह है कि इन बच्चों को बचाना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि बीमारी गंभीर हो चुकी होती है और परिजनों को समय पर पता नहीं चल पाता।"
 
डब्ल्यूएचओ के आंकड़े कहते हैं कि 2023 में दुनियाभर में 84 फीसदी बच्चों को ही डिप्थीरिया के टीके की तीन जरूरी खुराक मिली। 16 प्रतिशत बच्चों का या तो टीकाकरण हुआ ही नहीं या फिर अधूरा रह गया। दुनियाभर में टीकाकरण से संबंध में डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि 2015 से 2017 के बीच डीपीटी का टीकाकरण कवरेज 89 प्रतिशत से से घटकर 83 प्रतिशत पर आ गया।
 
टीकाकरण कवरेज में आई इस कमी का विभिन्न क्षेत्रों में बीमारी के नए सिरे से उभरने के बीच सीधा संबंध बताया जा रहा है। यह स्थिति व्यापक टीकाकरण और निरंतर कवरेज की आवश्यकता की ओर इशारा करती है ताकि बीमारी के संभावित हमलों से समय पर बचाव संभव हो सके।
 
जर्मनी में भी 14 अक्टूबर को स्वास्थ्य अधिकारियों के हवाले से डिप्थीरिया के एक केस की जानकारी सामने आई। समाचार एजेंसी डीपीए के अनुसार, प्रभावित बच्चे की उम्र 10 साल है। 27 सितंबर को गंभीर टॉन्सिलाइटिस के कारण उसे राजधानी बर्लिन के पास ही ब्रैंडनबुर्ग के एक अस्पताल में लाया गया था। अस्पताल को डिप्थीरिया का संदेह हुआ।
 
अब लैब रिपोर्ट में डिप्थीरिया की पुष्टि हो गई है। बर्लिन के एक अस्पताल में बच्चे का इलाज चल रहा है। बच्चा जिस इलाके में रहता है, वहां स्वास्थ्य अधिकारी उसके संपर्क में आए लोगों की पहचान कर जांच कर रहे हैं। जर्मनी में साल 1892 में डिप्थीरिया के मामले विस्फोटक हो गए थे। इसके कारण 50,000 से ज्यादा मौतें हुई थीं। 1913 में टीकाकरण शुरू हुआ और नतीजतन संक्रमण दर बहुत तेजी से घटती गई। पिछले 20 साल से यह बीमारी एक तरह से जर्मनी में खत्म हो गई थी। डीपीए की खबर के मुताबिक, इस साल अब तक 37 मामलों की पुष्टि हो चुकी है।
 
बच्चों में क्यों तेजी से फैलता है डिप्थीरिया
अहमदाबाद में 'एशियन चिल्ड्रन हॉस्पिटल' के संस्थापक डॉ. इमरान पटेल सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय और प्रसिद्ध हैं। बच्चों को वैक्सीन लगाने के उनके अनोखे तरीके के कारण वह इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर काफी लोगों का ध्यान खींचते हैं। डिप्थीरिया के बढ़ते मामलों पर डॉ। इमरान बताते हैं, "बच्चे अक्सर एक साथ उठते-बैठते और खेलते हैं। एक संक्रमित बच्चे के छींकने या खांसने से ऐरोसॉल (हवा में बूंदें) स्वस्थ बच्चे तक पहुंचकर उसे बीमार कर सकते हैं। इसके अलावा पेंसिल या अन्य चीजों को मुंह में डालने और दूसरे बच्चे द्वारा उसे उपयोग करने से भी संक्रमण फैल सकता है।"
 
पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हुई बच्चों की मौतों पर वह कहते हैं, "कोरोना में किए गए स्वाब टेस्ट की तरह ही इसकी भी जांच की जाती है, जिससे बीमारी की पुष्टि होती है। इसके इलाज में एंटीबॉयोटिक, पेनिसिलिन के साथ एंटी डिप्थीरिया सीरम (एडीएस) दवाएं दी जाती हैं। दवा का न होना बच्चों के लिए भयावह हो सकता है।" खबरों के अनुसार, डिप्थीरिया के लिए पाकिस्तान में एक बच्चे के इलाज के लिए 0.25 मिलियन पाकिस्तानी रुपये (लगभग 1.2 लाख रुपए) की एंटीटॉक्सिन दवा की जरूरत होती है।
 
इलाज के बाद भी लें टीका
डिप्थीरिया के बचाव की सलाह देते हुए डॉ. इमरान बताते हैं, "जिस बच्चे में डिप्थीरिया के लक्षण दिखने लगें, उसे अलग कमरे में रखना सुरक्षित होगा। घर के सदस्य मास्क का प्रयोग करें। दूसरे बच्चों को संक्रमित बच्चे से दूर रखें। मरीज को खाने में तरल पदार्थ अधिक दें।"
 
डॉ. इमरान आगे बताते हैं, "डिप्थीरिया का समय पर इलाज मिले, तो मरीज की जान बच सकती है। हालांकि, बीमारी ठीक होने के बाद टीकाकरण की खुराक फिर से पूरी की जा सकती है क्योंकि एक बार के टीके से इसमें जीवनभर के लिए इम्युनिटी विकसित नहीं होती। टीके की खुराक अधूरी रहने पर डिप्थीरिया का संक्रमण फिर से हो सकता है।"

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