लॉकडाउन के कारण भारत के विभिन्न भागों में रहने वाले बिहारी मजदूर बड़ी संख्या में अपने राज्य पहुंचे हैं। इन श्रमिकों के सहारे विकसित बने राज्य मजदूरों के पलायन से परेशान हैं, तो बिहार इनके बूते आत्मनिर्भर बनना चाहता है।
क्या प्रांत की तस्वीर बदलेंगे घर लौटे ये प्रवासी श्रमिक?
कोरोना संक्रमण के दौर में हुए लॉकडाउन ने एक बार फिर भारत को बिहार की श्रमशक्ति का एहसास करा दिया है। देश के कोने-कोने में हर तरह के उद्योग-धंधे का हिस्सा बन चुके बिहार के कुशल और अर्द्धकुशल कामगार व मजदूरों ने कामकाज ठप होने के बाद अपने गांव का रुख किया है। काफी ना-नुकूर के बाद राजनीतिक हालात भांप बिहार की नीतीश सरकार ने प्रवासियों को परदेस से लौटने की अनुमति दी।
लेकिन लोग पैदल, साइकल, बसों या फिर श्रमिक स्पेशल ट्रेन से अपने घरों को चल पड़े और जल्द ही करीब 5 लाख प्रवासी कामगारों के बिहार लौटने की संभावना है। सस्ते श्रम का साथ छुटता देख एक ओर जहां हरियाणा, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश व तेलंगाना जैसे राज्य परेशान हैं, वहीं दूसरी ओर बिहार इसे एक अवसर के रूप में देख रहा है जिसके बूते वह भी विकसित राज्यों की श्रेणी में खड़ा हो सके। बिहार के अधिकारी इसी श्रमशक्ति के बूते बिहार को निवेशकों की पसंद बनाने की बात कर रहे हैं।
प्रवासियों की स्किल मैपिंग
कोरोना महामारी से निबटने की चिंता के साथ ही स्थानीय प्रशासन की यह भी चिंता है कि दूसरे राज्यों से लौटने वाले कामगारों को स्थानीय अर्थव्यवस्था में कैसे खपाया जाए? इस समय सभी कामगारों की स्किल मैपिंग की जा रही है। जीविका दीदियों द्वारा राज्यभर के क्वारंटाइन सेंटरों में सर्वे किया जा रहा है ताकि यह पता चल सके कि इन कामगारों की क्षमता एवं रुचि क्या है? इसी के अनुरूप उन्हें काम दिलाने की योजना है? उनसे फोन नंबर भी लिया जा रहा है। इन निबंधित कामगारों का डाटा तैयार कर उसे वेबसाइट पर अपलोड किया जाएगा।
सरकार की सोच है कि इससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि राज्य में किस सेगमेंट में कितने कुशल या अर्द्धकुशल कामगार हैं? राज्य में निवेश के इच्छुक उद्योगपतियों को यह बताना संभव हो सकेगा कि उनके लिए किस तरह के श्रम संसाधन यहां मौजूद हैं? अपने स्तर से सरकार राज्य में उद्योग-धंधे लगाने के लिए निवेशकों से बातचीत भी कर रही है। भारत के श्रम कानून को निवेश प्रोत्साहन में बाधक माना जाता है। इसे देखते हुए आवश्यक संशोधन की भी तैयारी हो रही है।
बिहार में फिलहाल 36 श्रम कानून हैं। इनमें कुछ में अस्थायी छूट देने का प्रस्ताव है। विभिन्न योजनाओं में रोजगार के मौकों के साथ ही स्किल्ड लोगों के लिए कौशल विकास, कुटीर उद्योग व स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) जैसे विकल्पों पर भी विचार किया जा रहा है।
राज्य के उद्योग मंत्री श्याम रजक कहते हैं कि अभी तक 77 हजार स्किल्ड लोगों का डाटा तैयार किया जा चुका है। इनमें 75 सेक्टरों के लोग हैं जिनमें बढ़ई, प्लंबर, लेथ, वेल्डिंग मशीन, मोटर मैकेनिक, राजमिस्त्री, गारमेंट व सर्विस जैसे अन्य सेक्टरों के कामगार शामिल हैं। पूरा डाटा जल्द ही तैयार कर लिया जाएगा। इसके आधार पर निवेशकों को बताया जा सकेगा कि किस सेक्टर में राज्य में कितने कुशल या अर्द्धकुशल कामगार हैं?
इस बात की भी पड़ताल की जा रही है कि राज्य या देश के बाहर विदेशों में किस तरह के माल की मांग है? प्रांत के उद्योग मंत्री कहते हैं कि ऐसे उत्पादों के लिए छोटे और मझोले उद्यमों के मंत्रालय के माध्यम से राज्य में उद्योग-धंधे लगाए जाएंगे जिनमें प्रवासी कामगारों को रोजगार मिलेगा। हर 3 महीने पर 100 लोगों का चयन कर उन्हें पटना के उपेंद्र महारथी संस्थान में ट्रेनिंग दी जाएगी ताकि वे हस्तकला का रोजगार कर सकें। वे टेराकोटा, मिथिला पेंटिंग, मधुबनी पेंटिंग, टिकुली आर्ट जैसे क्राफ्ट तैयार करेंगे जिसकी खरीद राज्य सरकार करेगी। हैंडलूम व खादी मॉल से ग्रामीण व कुटीर उद्योग में तैयार किए गए सामानों की बिक्री की जाएगी। इसमें ई-कॉमर्स का भी सहारा लिया जाएगा।
बिहार के श्रमिक सालों से राज्य के बाहर काम की तलाश में जाते रहे हैं। हालत इतनी खराब है कि युवाओं का बड़ा हिस्सा पढ़ाई के लिए भी राज्य के बाहर जाता है। लेकिन इस समय सवाल यह किया जा रहा है कि क्या लॉकडाउन की वजह से वापस लौटे प्रवासी मजदूर राज्य में रुकेंगे? श्याम रजक इसके जवाब में कहते हैं कि हमारे पास जो इनपुट हैं, उसके अनुसार अब मात्र 10 फीसदी लोग ही बाहर जाएंगे और वे जाएं भी तो क्यों? जब उन्हें घर में ही काम मिल जाएगा तो वे भला बाहर क्यों जाएंगे?
इससे उलट कांग्रेस के विधायक प्रेमचंद मिश्रा कहते हैं कि यह सब हवाबाजी है। मीडिया में रोज बोलना है तो जो जी में आए बोल दें। पहले आप लोगों को लाने के लिए तैयार नहीं थे, लाठी-डंडे मार रहे थे। आप उनको रोजगार कहां से दीजिएगा? ऊपर से दोषारोपण कर रहे हैं कि प्रवासियों के चलते संक्रमण बढ़ गया है। कांग्रेस की तो यह मांग है कि प्रवासी कामगारों के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन किया जाए।
प्रेमचंद्र मिश्रा कहते हैं कि अगर 25-30 लाख श्रमिक बाहर हैं तो यह बिहार सरकार की असफलता है। उनके लिए रोजगार नहीं है तभी तो लोग पलायन कर जाते हैं। वे कहते हैं कि अभी जिस पैकेज की घोषणा हुई है उसमें श्रमिकों, अभावग्रस्त जरूरतमंदों के लिए तो कुछ है ही नहीं। अभी प्राथमिकता तो राशन-भोजन है।
प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार के मुद्दे पर अर्थशास्त्री शैबाल गुप्ता का कहना है कि यह आकलन करना अभी कठिन है कि कितने रुकेंगे और कितने फिर चले जाएंगे? कोविड-19 के बाद वाले फेज के बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। हां, इस बीच एक्टिविटी बढ़ेगी तो कुछ तो कहीं-कहीं समायोजित होंगे। कामगारों की संख्या बड़ी है इसलिए थोड़ा मुश्किल है। सरकार के लिए फंड भी एक मुद्दा है।
वहीं अर्थशास्त्री अमित बख्शी कहते हैं कि लंबे समय में इन कामगारों से राज्य को बड़ा लाभ मिल सकता है। ये कृषि के अतिरिक्त दूसरे सेगमेंट में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। नाम न छापने की शर्त पर श्रम संसाधन विभाग के एक वरीय अधिकारी कहते हैं कि सबको रोक लेना संभव नहीं। ये लौटेंगे ही। 6 महीने बाद राज्य में चुनाव हैं, सरकार का फोकस भी बदल जाएगा। एक निजी चैनल के पत्रकार नीतीश चंद्र कहते हैं कि दारोमदार सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग पर है। सरकार को एक रोडमैप बनाकर इस पर काम करना होगा।
इस समय राज्य सरकार सड़क व भवन निर्माण, ग्रामीण विकास, जल संसाधन और 24 हजार करोड़ की महत्वाकांक्षी जल-जीवन-हरियाली योजना में प्रवासी कामगारों के लिए रोजगार बनाने के प्रयास कर रही है। मनरेगा के तहत करीब 9 लाख लोग सरकार की विभिन्न योजनाओं में रोजगार पा रहे हैं। ये कामगार राज्य में कृषि के साथ-साथ मत्स्यपालन, पशुपालन, खाद्य प्रसंस्करण, मक्का व सब्जी उत्पादन की तस्वीर बदल सकते हैं।
मजदूरों की उपलब्धता से नकदी फसलों की पैदावार बढ़ सकती है, जो राज्य को आत्मनिर्भर बनाने में काफी मददगार होगी। लेकिन उन्हें भरोसा देना होगा और रोकना होगा। बिहार-यूपी के मजदूर कई राज्यों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। देश के विकसित राज्यों को श्रम की कमी के खतरे का आभास है तभी तो वे तरह-तरह के जतन कर रहे।
कर्नाटक ने तो बेंगलुरु से पटना आने वाली 3 ट्रेनों का आरक्षण तक रद्द करवा दिया था। बिल्डर लॉबी को डर था कि मजदूर अगर चले गए तो सारे प्रोजेक्ट्स धरे-के-धरे रह जाएंगे। हरियाणा का भी यही हाल है। अब ये बिहार की सरकार और उद्यमियों पर निर्भर है कि क्या वे सस्ते श्रम का फायदा खुद अपने राज्य के विकास के लिए उठा सकेंगे?