ज्योतिष में कुल 9 ग्रहों की गणना की जाती है। इनमें सूर्य, चंद्र, बृहस्पति (गुरु), शुक्र, मंगल, बुध, शिन मुख्य ग्रह तथा राहु-केतु छाया ग्रह माने जाते हैं। इन ग्रहों में सूर्य-मंगल क्रूर ग्रह तथा शनि, राहु व केतु पाप ग्रह माने जाते हैं। सूर्य हमारे नेत्र, सिर और हृदय पर प्रभाव रखता है। मंगल पित्त, रक्त, कान, नाक पर और शनि हड्डियों, मस्तिष्क, पैर-पिंडलियों पर प्रभुत्व रखता है। राहु-केतु का स्वतंत्र प्रभाव नहीं होता है। वे जिस राशि में या जिस ग्रह के साथ बैठते हैं, उसके प्रभाव को बढ़ाते हैं।
बृहस्पति, शुक्र, बुध शुभ ग्रह माने जाते हैं। पूर्ण चंद्रमा शुभ कहा गया है। मगर कृष्ण पक्ष की तरफ बढ़ता चंद्रमा पापी हो जाता है। बृहस्पति शरीर में चर्बी, गुर्दे, व पाचन को नियंत्रित करता है। शुक्र वीर्य, आँख व कामशक्ति को नियंत्रण में रखता है। बुध का वर्चस्व वाणी (जीभ) पर होता है। चंद्रमा छाती, फेफड़े व नेत्रज्योति पर अपना प्रभाव रखता है।
ग्रहों का कारकत्व : जन्मकुंडली में 12 भाव होते हैं। भावों के नैसर्गिक कारक निम्नानुसार है- सूर्य- प्रथम भाव, दशम भाव चंद्र- चतुर्थ भाव शनि- षष्ठ, व्यय, अष्टम भाव शुक्र- सप्तम भाव मंगल- तृतीय, षष्ठ भाव गुरु- द्वितीय, पंचम, नवम, एकादश भाव बुध- चतुर्थ भाव विशेष- यदि भाव का कारक उस भाव में अकेला हो तो भाव की हानि ही करता है।
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ग्रहों का स्थान व दृष्टि परिणाम : चंद्र, शुक्र व बुध जिस स्थान पर बैठते हैं, उसकी वृद्धि करते हैं। गुरु ग्रह जिस घर में बैठता है, उसकी हानि करता है मगर जिस घर को देखता है, उसकी वृद्धि करता है। मंगल जहाँ बैठता है व जहाँ देखता (अपने घर के अलावा), सभी को हानि पहुँचाता है।
सूर्य अपने स्थान बल के अनुसार लाभ (दशम में सर्वाधिक) देता है, अन्यथा हानि पहुँचाता है। शनि, जिस घर में बैठता है उस घर में फलों की वृद्धि लाता है मगर जहाँ देखता है वहाँ हानि करता है।
ग्रहों की दृष्टि : सभी ग्रह अपने से सातवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। गुरु की पाँचवीं व नौवीं दृष्टि भी होती है। शनि तृतीय व दसवें स्थान को भी देखता है। मंगल चौथे व आठवें स्थान को देखता है। राहु-केतु भी क्रमश: पाँचवें और नौवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं।
फलादेश के सामान्य नियम 1. कुंडली में त्रिकोण के (5-9) के स्वामी सदा शुभ फल देते हैं। 2. केंद्र के स्वामी (1-4-7-10) यदि शुभ ग्रह हों तो शुभ फल नहीं देते, अशुभ ग्रह शुभ हो जाते हैं। 3. 3-6-11 भावों के स्वामी पाप ग्रह हों तो वृद्धि करेगा, शुभ ग्रह हो तो नुकसान करेगा। 4. 6-8-12 भावों के स्वामी जहाँ भी होंगे, उन स्थानों की हानि करेंगे। 5. छठे स्थान का गुरु, आठवाँ शनि व दसवाँ मंगल बहुत शुभ होता है। 6. केंद्र में शनि (विशेषकर सप्तम में) अशुभ होता है। अन्य भावों में शुभ फल देता है। 7. दूसरे, पाँचवें व सातवें स्थान में अकेला गुरु हानि करता है। 8. ग्यारहवें स्थान में सभी ग्रह शुभ होते हैं। केतु विशेष फलदायक होता है। 9. जिस ग्रह पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होती है, वह शुभ फल देने लगता है।
विशेष : लग्न की स्थिति के अनुसार ग्रहों की शुभता-अशुभता व बलाबल भी बदलता है। जैसे सिंह लग्न के लिए शनि अशुभ मगर तुला लग्न के लिए अतिशुभ माना गया है।