कमसिनी का हुस्न था वो, ये जवानी की बहार पहले भी रुख पर यही तिल था मगर क़ातिल न था
फ़रिश्ते वक़्त से पहले अज़ाब देने लगे गली के बच्चे पलट कर जवाब देने लगे।
रोशनी बाँट ली उभरे हुए मीनारों ने पस्त ज़र्रों के मुक़द्दर में वही रात रही।
गंजीनाए माअनी का तिलिस्म उसको समझये जो लफ़्ज़ के ग़ालिब मेरे अशआर में आए।
वाजिब है मालदार को देना ज़कात का तुम मालदारे हुस्न हो बोसा दिया करो।
तुझे न माने कोई इससे तुझको क्या मजरूह चल अपनी राह भटकने दे नुकता चीनों को।
ग़ालिब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात दे और दिन उनको जो न दे मुझको ज़बां और।
रोक सकता हमें ज़िन्दान-ए-बाला क्या मजरूह हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं।
फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर मर्दे नादां पर कलामे नर्मो नाज़ुक बेअसर।
तुम हो क्या, ये तुम्हें मालूम नहीं है शायद तुम बदलते हो तो मौसम भी बदल जाते हैं।
देश की ख़ातिर मिटादे अपनी हस्ती तू नदीम आज के दिन होगी क़ुरबानी यही सब से अज़ीम।