कवि सम्मेलन या काव्य गोष्ठी उस चिड़िया का नाम है, जिससे महज साहित्यकारों की बिरादरी का ही वास्ता रहता है। बाकी लोग ऐसी गतिविधियों से वैसे ही परहेज करते हैं, जैसे कंजंक्टिवाइटिस से ग्रसित रोगी से अन्य लोग। हाँ यदि साहित्यकार सुप्रसिद्ध हो तो अलग बात है। आम कवि सम्मेलन या कवि गोष्ठी में सामान्यतः सभी रचनाकार अपने आपको आला दरजे का साहित्यकार समझते हैं। कहते हैं ना कि अपनी माँ को डायन कौन कहता है?
अर्थात अपनी रचना को कोई भी सर्जक खराब नहीं समझता है। व्यक्तित्व से साहित्यकार अत्यंत सीधे-सादे नजर आते हैं, पर जब मंच पर आते हैं और अपनी कविता सुनाते अथवा पढ़ते हैं तो ऐसे दहाड़ते हैं मानो वे ही सच्चे कवि हों, सूरज-चाँद की तरह बाकी सब तो, वे जुगनू की तरह हो।
हाँ तो ऐसे ही एक कवि सम्मेलन में मुझे भी जाने का सुअवसर मिला। भला हो संयोजकजी का जिन्होंने पहले से ही घोषणा कर दी थी कि प्रति कवि केवल एक ही कविता सुनाए वह भी बड़ी न हो। पर आदत से लाचार कवि महोदय बस चार लाइन और कहकर चार बार, चार-चार लाइन सुना चुके थे।
कई कवियों को तो संयोजक द्वारा हस्तक्षेप कर बैठ जाने का भी कहा गया, पर वह कवि ही क्या जो इतनी जल्दी माइक छोड़ दे। इतना ही नहीं वे दाद देने का भी आग्रह कर रहे थे। विराजमान कविगण भी पिंड छुड़ाने और स्वयं की कविता सुनाने की व्यग्रता में - वाह क्या बात है, लाइन को दोहराना, बहुत खूब आदि कहकर औपचारिकता निभा रहे थे। पर परोक्ष में एक-दूसरे से आँखों ही आँखों में कविता का उपहास भी कर रहे थे।
लोगों को बात करते देखकर काव्य पाठ कर रहे कवि महोदय वक्र दृष्टि से देखकर ताकीद कर देते हैं कि कृपया ध्यान दीजिए। इस पर रंगे हाथों पकड़े जाने पर श्रोता बनाम कवि, क्षमा करें, सुनाइए, वाह-वाह आदि आरंभ कर देते थे। मुझे मन ही मन हँसी आ रही थी, पर अपनी कविता सुनाने की व्यग्रता मुझ में भी उन लोगों से कम नहीं थी और उसके समाप्त होने की राह देख रही थी। एक कवि ने मेरी इस मुद्रा पर मुझे टोक ही दिया।
वे बोले क्या बात है महोदयाजी आपको मेरी कविता पसंद नहीं आई क्या? मैंने भी अवसर की नजाकत को भाँपते हुए कहा - नहीं-नहीं मैं तो आपकी कविता में खो गई थी! इस पर तो वे जैसे धन्य हो उठे और एक कविता मुझको समर्पित करते हुए दाग दी। मैं भी जैसे सुरक्षा कवच पहन कर बैठी थी, सो उनकी कविता झेल गई और प्रकट में बोली धन्यवाद- बहुत खूब।
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काव्य पाठ के लिए मेरे नाम की घोषणा हुई। तब तक आधे से ज्यादा कविगण अपनी कविता का यशोगान कर जा चुके थे। मानो कह गए हों - मैंने पिया, मेरे घोड़े ने पिया अब कुआँ धँस पड़ो। खैर जैसे-तैसे मैंने भी अपनी रचना (सबकी रचना सुनने के प्रतिशोध में) जोश-खरोश से सुना डाली।
कहा जाता है कि कवि पैदा होते हैं, बनाए नहीं जाते पर कलियुग में कम्प्यूटर और रोबोट से दो-दो हाथ करने वाले सॉफ्टवेयर में काम करने वाले मेरे पुत्रों में से एक ने कविता लिखने की रेसिपी भेजी है। जनता जनार्दन के हितार्थ प्रस्तुत कर रही हूँ -
सामग्री - पेन, डायरी या कागज, टेबल-कुर्सी-आसन या डेस्क
विधि - किसी भी विषय को पहले गद्य में बिंदूवार लिख लिजिए। फिर उससे संबंधित मिलते-जुलते तुकांत शब्द लिख लिजिए। फिर इनको पंक्ति के अंत में लिखकर कविता का आरंभ करें और उससे जोड़ दें।
जैसे - शाला और माला की कविता, आखिरी शब्द - शाला, माला, बाला, काला, प्याला, ज्वाला।
अब कविता इस प्रकार बनाइए -
गई कभी न शाला, ऐसी लड़की थी माला भैंस बराबर अक्षर काला, आदर पाती न वह बाला चाय बनाती भर-भर प्याला, धधक रही पढ़ने की ज्वाला जा नहीं पाती फिर भी शाला।
तो ऐसे ही किसी विषय पर कविता लिखिए और कवि बनकर कवि सम्मेलन में जाकर सबको बोर कीजिए और वाह-वाही लूटिए।