फिल्म देखने का इल्म!

- प्रकाश पुरोहित

ND
आज फिल्म बनाने वाले उतनी मेहनत नहीं करते होंगे जितनी हम उन दिनों फिल्म देखने के लिए, हर फिल्म देखने के बाद ही शुरू कर देते थे। किसान जितनी मेहनत में दो फसलें उगा लेता था, हम उतनी मेहनत और समय में एकाध फिल्म की फसल ही काट पाते थे। उन दिनों फिल्म देखना मन्नात की तरह होता था कि क्या पता कब पूरी हो..., हो... हो..., न भी हो।

मैं ऐसे भी मन्नतियों को जानता हूँ कि उनका द एंड आ गया, मगर वे फिल्म नहीं देख सके! एक ही हसरत होती थी कि एक... भरी-पूरी... सरकारी समाचार और सिरदर्द की गोलियों वाले विज्ञापन से शुरू होने वाली फिल्म देखें। वरना होता यही था कि अँधेरे में ही टॉकीज में दाखिल होते और एंड में हीरो-हीरोइन गले मिलें, इससे पहले बाहर निकाल दिए जाते थे।

उन दिनों भी सेंसर बोर्ड की हालत आज जैसी ही थी... कोई परवाह नहीं करता था। पिताजी पास ही कैंची लिए बैठे रहते थे और फिल्म का चरित्र भाँपा करते थे। जहाँ भी कोई मिलन समारोह आने को होता... उनका हाथ हमारे सिर पर से होता हुआ, आँख पर आ जाता। इस तरह के न जाने कितने 'रुकावट के लिए खेद' के साथ फिल्म पूरी हो ही जाती, मगर यह पल्ले नहीं पड़ता था कि फिल्म में आखिर हुआ क्या था। फिर भी यह खुशी रहती थी कि फिल्म देख ही आए।

दूसरे दिन स्कूल में हमारा कद हेडमास्टर से भी ऊँचा इसलिए हो जाता था कि हम उस न समझ आने वाली फिल्म की स्टोरी अपने साथियों को सुनाने वाले होते थे। बच्चे हमें इतनी-इतनी चीजें खिलाते कि कई बार तो स्टोरी सुनाना भूल जाते थे। जो हमें कुछ खिलाता, हम उसी की तरफ मुँह करके स्टोरी, नाच-गाने और खास तौर पर 'ढुसुम-ढुसुम' के सीन सुनाते।

फिल्म में अगर लड़ाई 5 मिनट की होती थी तो हम आधा घंटा तो हीरो को पिटवाने में ही लगा देते थे। हीरो की पिटाई इस पर भी निर्भर रहती थी कि श्रोता-बिरादरी को मजा आ रहा है या नहीं। उनके मजे के हिसाब से ही हीरो पिटता रहता था। इसी तरह विलेन को भी हम तब तक पिटवाते रहते थे कि जब तक हमारे ही पिटने की बारी न आ जाती थी। एक फिल्म कई महीनों तक खेंच लेते थे उन दिनों।

अगर हमारी सुनाई कहानी उस फिल्म का निर्देशक सुन लेता तो उस पर फिर से फिल्म बना देता... क्योंकि तब तक वह उसकी कहानी तो रह ही नहीं जाती थी।

उन दिनों विज्ञान ने गजब की तरक्की कर ली थी कि घर से बच्चे निकलते तो थे 'जय संतोषी माँ' देखने और पाए जाते थे 'बॉबी' में। जब रंगी आँखों धर लिए जाते तो बता नहीं पाते कि कमल टॉकीज में घुसे थे तो अशोक टॉकीज कैसे आ गया।

वैसे उन दिनों बच्चों के माँ-बाप आमतौर पर 'बॉबी' वाली टॉकीज के आसपास ही मँडराते रहते थे। जैसे पुलिस चालान बनाती है ना, उसी अदा में... कि अपनी औलाद नहीं पकड़ में आई तो क्या...। आस-पड़ोस, गली-मोहल्ले के भी तो बच्चे अपने ही हैं। नई पीढ़ी को 'बॉबी' से बचाने का संकल्प ले रखा था जैसे। कई तो इतने ताव में आ जाते कि बॉबी देख रहे बालक को झापड़ रसीद करने में पूरी ताकत लगा देते। बालक पिटता और घर जाकर शिकायत भी नहीं करता।

घर वाले भी बच्चे का गाल देखकर समझ जाते कि इतना करारा तो छुन्नाचाचा ही मार सकते हैं। इतनी शरम रखी जाती थी कि पूछताछ नहीं करते थे कि कहाँ से और क्यों पिटकर आ रहे हो...! गलती की तो सजा किसी ने भी दे दी... क्या फर्क पड़ता है। ऋषि-डिंपल की जितनी पिटाई घर से भागने पर नहीं हुई होगी, उससे कहीं ज्यादा बच्चे टॉकीजों में 'बॉबी' देखते पिटते रहते थे। हर 5-10 मिनट पर 'चटाक' का साउंड ट्रेक बज उठता और टॉर्च की रोशनी में एक होनहार दर्शक बाहर कर दिया जाता।

कई तो ऐसे भी थे, जिन्होंने यह गिनती तो पूरी कर ली कि ऋषि और डिंपल कितनी बार गले मिले थे... मगर यह भूल गए कि इस गिनती के लिए उन्हें पूरे बारह चाँटे खाना पड़े और तेरहवीं बार में फिल्म पूरी नहीं देखी... कि आखिर में गले मिलन का जो दृश्य था, वह प्राण और प्रेमनाथ के बीच था... उसके लिए झापड़ क्यों खाना!

उन दिनों हर घर-परिवार में एक बिगड़े हुए छुन्नाा चाचा होते थे, जिन्हें इस काम के लिए ही छुट्टा छोड़ दिया जाता था कि वे तमाम फिल्में देखें और तय करें कि किस आयु वर्ग के लिए यह फिल्म गुणकारी है। छुन्नाा चाचा एक तरह से चलता-फिरता सेंसर बोर्ड थे। पूरे मोहल्ले में उनकी धाक थी! चोरी-छिपे देखने के आरोप में बाप-दादा के हाथों जितना वे पिटे हैं, उतने तो सारी फिल्मों के विलेन और हीरो मिलकर भी नहीं पिटे होंगे। इसी पिटाई और उनकी कड़क जान का परिणाम था कि उनकी राय हर घर-परिवार में वजन रखती थी।

वैसे बाद के दिनों में छुन्नाा चाचा ने टूटे हुए जाम पर तौबा तोड़ दी... और बहकावे में आकर मनचाही राय बेचने भी लगे। 'जॉनी मेरा नाम' को उसके गाने 'बाबुल प्यारे...' के सहारे धार्मिक फिल्म का सर्टिफिकेट दे दिया। जवान छोकरे तो 'हुस्न के लाखों रंग...'देखकर मोक्ष को प्राप्त हुए। मगर जब घर-परिवार की महिलाएँ 'बाबुल प्यारे...' के हिसाब से चली गईं तो छुन्ना चाचा की पोल खुल गई।

इस तरह एक महान समीक्षक की असामयिक बिदाई भी हो गई! उन दिनों सुबह फिल्म से शुरू होती है और रात को नींद भी उसी समय आती, जब फिल्मी सपना शुरू होता। एक ही फिल्म में पूरी रात निपट जाती... और कई बार तो पार्ट टू-थ्री भी अगली रात जुड़ जाते। वो तो बापजी का झापड़ ही होता था... कि फिल्म का क्लाइमेक्स खत्म हो जाता था... वरना एक बार में ही आठ-दस पार्ट तो देख ही लेते।

अब वो फिल्म की दीवानगी न देखने वालों में है और न रोकने वालों में। पीढ़ियों के बीच से फिल्म क्या निकल गई... लगता है अब प्रतिभा की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई है। चोरी के जाम खाने का मजा वही ले सकता है, जिसने अपने बूते पर फिल्म देखी है। देश, समाज और परिवार के तमाम इंकार और विरोध के बाद फिल्म देखकर धन्य होने वाली पीढ़ी ही अब नहीं रही। या तो हम सुधर गए हैं... या फिर नई पीढ़ी बिगड़ रही है...।