व्यंग्य : मैरेज करोगे तो ऐसे ही मरोगे...!

रवीन्द्र गुप्ता

बुधवार, 13 जून 2018 (11:55 IST)
प्रिय पाठकों,
 
आप सभी को मेरा नमस्कार
 
कुछेक 'कमसमझ' लोगों की तरह मैंने भी अपना 'मैरेज' (विवाह) कर अपना 'मरण' तय करवा लिया था। अब आप मेरे मैरेज (या कि मरण) के बाद मेरी दुर्गति व दुर्मति की कहानी सुन लीजिएगा, थोड़ी-थोड़ी इंदौरी व मालवी भाषा व बोली के साथ। और हां, पढ़ने के बाद आप जी भरकर होऽऽ होऽऽ कर हंस लीजिएगा या कि फिर एक तगारी आंसू जरूर बहा लीजिएगा, जो भी आपकी इच्‍छा हो। दिल हल्का हो जाएगा।
 
 
जब से मेरा मैरेज हुआ है, मेरा तो मरण ही हो गया है। कहां तो मैंने सोचा था, क्या सोचा था? वो ये कि विवाह के बाद मैं चांद-तारों में विचरण करूंगा। लेकिन हां, चांद-तारे तो मिले जरूर मुझे लेकिन बदले हुए स्वरूप में। वो कैसे? वो ऐसे कि मैरेज बाद मेरा इत्ता मरण हुआऽऽऽ, इत्ता मरणऽऽऽ कि मेरे सिर में 'चांद' निकल आया यानी कि खोपड़ी के सारे बाल सफ़ा हो गए। और रही बात तारों की, तो मैं जिंदगी की जद्दोजहद (या कि जहर) में इस कदर उलझा कि मुझे तो दिन में ही 'तारे' नजर आने लगे। आसमानी तारे क्या खाक मिलते?
 
एक बार की बात है कि मैं अपनी गाड़ी पर अपनी लाड़ी को बैठाल के एक शादी समारोह की ओर जा रिया था। मेनरोड से गुजरते समय मेरी निगाहें रोड के दोनों ओर स्थित दुकानों के साइन बोर्ड की ओर रह-रहकर जा रही थीं। अब 'इनका' मन थोड़ा शंकालु तो होता ही है, अत: पीछे बैठी मेरी लाड़ी ने जब मुझे इधर-उधर ताक-झांक करते देखा तो वह बोली कि 'क्यों रे, तू इधर-उधर क्या देख रिया है? सीधा गाड़ी क्यों नहीं चलाता? क्या तेरको पता नहीं है कि मैं पीछे बैठी हूं। क्या तेरा मन अभी भी नहीं भरा है मेरसे? चल, सीधा गाड़ी चला।'
 
अब पीछे से उनका जुबानरूपी 'हंटर' तो बरस ही गया था, लेकिन फिर भी मैंने अपेक्षित धीरज धारते हुए अत्यंत ही ठंडे स्वर में कहा कि 'हे देवी, मैं इधर-उधर ताक-झांक नहीं कर रिया हूं, बल्कि मैं तो कोई साड़ी-वाड़ी की दुकान देख रिया हूं कि कोई नया लेटेस्ट आयटम बाजार में आया है क्या? ताकि तेरको मैं साड़ी दिला सकूं। तेरको तो गलतफहमी हो गई है।'
 
और फिर देखो चमत्कार! 'लाड़ी' ने जैसे ही 'साड़ी' का सुना तो उसके 'सड़े' स्वर में 'इमरती' जैसी मिठास न जाने कहां से आ गई। वो बड़े ही मीठे स्वर में बोली कि 'अच्छा तो तू साड़ी-वाड़ी की दुकान देख रिया था, मेरको क्या मालूम? मैं तो समझी थी कि अब तक मुझसे तेरा मन भरा नहीं होगा, अत: तू इसीलिए इधर-उधर ताक-झांक कर रिया हेगा। चल अच्छा, अब तू मेरको साड़ी कब दिलाएगा? मैं तेरे लिए मनपसंद भोजन और मिठाई वगैरह बनाकर खिलाऊंगी।'
 
मैं मैरेज (या कि मरण) बाद की इस अपनी 'मुसीबत' के सड़े स्वर से मीठे स्वर में आए बदलाव को महसूस कर रहा था तथा मन-मुदित भी हो रहा था। वैसे सुंदर-सुंदर-सी 'आती-जातीयों' को चोरी-छिपे देखकर मैंने अपने नयनों को ताज़ा गुलाब की तरह तरोताज़ा भी कर लिया था दुकानों के साइन बोर्ड देखने के साथ ही, सो यह अलग बात है तथा आप भी इस बारे में मेरी घर वाली को मत बताना। पर उसे मेरे द्वारा इस बारे में बताना ख़तरे से खाली थोड़े ही था, अत: बात घुमाकर उसके मन की करते हुए मैंने 'साड़ी का दांव' फेंक दिया था।
 
वो सभी धर्मों के धर्मग्रंथों में भी कहा गया है न कि भगवान (ईश्वर) और भागवान (स्त्री) से कभी पंगा मोल नहीं लेना! नहीं तो आदमी कि वो दुर्गति होती हैऽऽऽ, वो दुर्गति होती हैऽऽऽ कि न ही पूछो। और दुर्मति भी। अत: समझौता कर लेने में ही भलाई (और 'मलाई' भी) है।
 
मैंने सोचा कि रामायण में भी तो लिखा है कि माता सीता ने राम को कृष्ण मृग लेने भेज दिया था और फिर रामायण हुई। माता पार्वती के आगे भी देवों के देव महादेव की भी चली नहीं। और भी कई देवियां हैं जिनके कि आगे देवताओं की चली नहीं और दाल गली नहीं। तो फिर मैं किस खेत की मूली हूं? मेरी क्या बिसात? अत: यह सोचते-विचारते मैंने भी घुटने टेक देने में ही अपनी भलाई समझी।
 
और फिर जब मैं पार्टी में पहुंचा और भोजन कर रहा था कि इतने में मेरी 'मुसीबत' मेरे कने (पास) आकर खड़ी हो गई तथा कोहनी पर कोहनी मारने लगी। इसकी ये नाजुक कोहनी मुझे तो 'बम-गोलों' से कम नहीं लग रही थी। मैं मालवी बोली में बोला, 'कई हुओ? थारा खाना हुईग्यो कई?' तो वो बोली कि 'तू उधर उस महिला को देख। उसने जो साड़ी पेन रखी है, उसके जैसी मेरको दिलाना। और हां, अपने साड़ी के वादे से मुकरना मत।' इस पर मैंने एक अच्‍छे बच्चे की तरह स्वीकृति दे दी।
 
अब विवाह करके ओखली में सर डाल ही लिया है तो मूसल से क्या डरना? अत: इस बला (कौन कहता है कि वो अबला है?) को जैसे-तैसे तालमेल बैठाते हुए अपन जिंदगी की गाड़ी पार कर ही लेंगे। वैसे अतीत से अभी तक का इतिहास खंगाला और देखा जाए तो आदमी जन्म से लेकर आखिरी तक किसी न किसी महिला से किसी न किसी रूप में जूते खाता ही रहा है। काफी लंबी परंपरा है यह। वो ऐसे कि बचपन में शरारत करने पर माताजी मरम्मत कर देती थी, बड़े होने पर बड़ी बहनजी मार-ठुकाई लगाती थी और फिर सबसे 'डेंजरस जोन' तब शुरू होता है, जब आदमी का विवाह होता है। और फिर तो जोरू द्वारा 'आरती' का तो लंबा ही इतिहास है। और आगे बढ़ने पर बिटिया रानी भी अपने हाथ साफ कर लिया करती है बहुधा।
 
थोड़े दिन और बीते होंगे कि लाड़ी बाई बोली कि मेरको पीहर जाना है। मेरे भाई की शादी है। तो इस पर मैं 'हर्षित' होते हुए बोला कि 'तू कब जा री है थारे पीहर? अच्छा तो मैं भी तेरे लिए तैयारी किए देता हूं।' वो कहते हैं न कि 'मुसीबत' जितनी दूर रहे, उतना ही अच्‍छा। ये जितने दिन पीहर में रहेगी, उतनी ही मेरे मन को शांति मिलेगी। और मन की शांति के लिए मुझे मंदिर-मस्जिद व पहाड़ आदि पर नहीं जाना पड़ेगा। यहीं घर में 'स्वर्गीय' (स्वर्ग सरीखा-सा) सुख मिल जाएगा!
 
हां तो प्रिय पाठकों, मैं अपनी 'मरण' कहानी यहीं पर समाप्त करता हूं और आपकी भी कोई कहानी हो तो मुझे भी सुनाइएगा। आपको मेरी शुभ कामनाएं ताकि आपकी मेरी तरह 'दुर्गति' न हो।
 
और हां, चलते-चलते एक विशेष सावधानी : घरवाली से 'जुबानालाप' के दौरान सिर पर एक हेलमेट अनिवार्य रूप से धारण करें...! 'दुर्घटना से सावधानी भली।'

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