त्योहार और बाजार

गोपाल चतुर्वेदी
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देश के अमीरों और गरीबों की मानसिकता में जमीन-आसमान का फर्क है। उनकी मानसिकता से पता चलता है कि कितने अजीब हैं हिंदुस्तानी। वे गर्मी, जाड़ा, बरसात में कभी बच्चे पैदा करते हैं तो कभी उत्सव मनाते हैं। गरीब अपना पेट काटकर भी मौके का लाभ उठाने से नहीं चूकते हैं। त्योहार और जन्म-मृत्यु पर समृद्ध भले टालें लेकिन निर्धन को दूसरों को खिलाना ही खिलाना है।

ओशो रजनीश का उन्होंने नाम तक नहीं सुना है पर वह जानते हैं कि जिंदगी का ध्रुव सत्य मौत है। बहुत रो-धो लिए। अब तो उसे उत्सव की तरह मनाना ही मनाना। ऐसों की उत्सव-प्रियता का अपन लोहा मानते हैं।

दारू, दावत, शोर-शराबा, नाच-गाना या तो शहरों की झुग्गी-झोपड़ी में नजर आता है या गाँवों में। शहर की उच्च और मध्यवर्गीय बस्तियों के लोग सन्नाटे की सभ्यता के शिकार हैं। ऐसे लोग न सुख में ठहाका लगाते हैं और न ही दुख में रोते हैं तथा क्रोध में चीखते हैं। बहुत हुआ तो कभी हल्के से मुस्करा लिए या कभी काला चश्मा लगाकर सुबक लिए। लगता है जैसे वह सुख-दुख निर्लिप्त हैं, हमारी भारतीय गुटनिरपेक्ष विदेश नीति की तरह। हमारी विदेश नीति ताकतवर की ओर झुकती है, ऐसों की मनोवृत्ति पैसों की ओर।

हम भी शहर की मानसिकता अपना रहे हैं। हर शहरी की तरह अपनी भी महत्वाकांक्षा है, निम्न से मध्यवर्ग बनने की। हमने भी पड़ोसी से सुख-दुख का नाता तोड़ लिया है। वह भी बाबू, हम भी। ऐसों से ताल्लुकात रखकर क्या फायदा ? दोनों के दफ्तर फर्क नहीं पड़ता है। उसके घर से सबेरे-सबेरे शंख की ध्वनि आती है। सेक्युलर देश में पोंगा-पंडितों से दूर रहने में ही भलाई है। हर त्योहार उनके यहाँ धूमधाम से मनता है। अब तो हमें लगने लगा है कि त्योहार बाजार मनाता है और दीवाला अपना निकलता है। हमें अचंभा है।

अपने देश में क्या उत्सवों की कमी है जो बाजार को विदेश से वैलेंटाइंस, मदर्स, फादर्स जैसे 'डे' आयात करने पड़े? इन सबसे तो हम बच निकलते हैं, पत्नी और पप्पू को समझाकर कि अपने रिश्ते एकदिवसीय नहीं, जीवन भर के हैं पर दीवाली का क्या करें? उधर कीमतें आसमान की ओर बढ़ती हैं, इधर अपने पल्ले पड़ जाता है कि कोई न कोई त्योहार सिर पर है। यों अब त्योहार का कैलेंडर हमारे लिए एक तरह से पड़ोसी का घर है।

उनका घर बिजली के रंग-बिरंगे झालरों से सज रहा है। पप्पू हमारी जान खा रहे हैं, 'अपने यहाँ अंधेरा क्यों है?' हम उन्हें बताते हैं कि हम पारंपरिक तौर-तरीकों में विश्वास करते हैं। असली दीवाली तो दीयों के उजाले से है। जो जितनी चमक-दमक का प्रदर्शन करता है, उसका मन उतना ही काला है।

पप्पू उस दिन पड़ोसी से खासे नाराज थे और बोले, 'टप्पू हमसे कह रहा था कि लक्ष्मी मैया की कृपा से घर में मिष्ठान्न व काजू-किशमिश रखने की जगह नहीं बची है। उसे एक नई रेसिंग साइकिल गिफ्ट में मिली है।' हमने सोचा कि पोंगा-पंडित भ्रष्टाचार की माला जपता होगा। धर्म और नैतिकता का पाखंड रचने वाला सिर्फ अनैतिक हरकतें करता है। हमने पप्पू को ज्ञान दिया। लक्ष्मी मैया की सवारी उल्लू है। दूसरों के पैसे से घर भरनेवालों पर उल्लू की इनायत है। लक्ष्मी मैया सच्चे भक्तों को आशीर्वाद देती हैं।

हमने ऊपर वाले को दुआ दी। यही क्या कम है कि अपना गुजारा चल रहा है। भूखे क्या पेट बजाते होंगे त्योहार पर? हमें बाजार से चिढ़ है। दीये-फुलझड़ी से खुश हैं अपन। मन ही मन हमने पड़ोसी को कोसा। उसे सीबीआई कल पकड़ती हो तो आज पकड़ ले। कमबख्त मुल्क की भावी पीढ़ी को तबाह कर रहा है। कौन जाने कि सीबीआई और अपने पड़ोसी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हों?

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