जी हाँ, यदि आप इस रचना को पढ़ रहे हैं तो आप मेरे लिए देवता के समान हैं और मैं आपको दंडवत प्रणाम करता हूँ। जाने-अनजाने में आप इस खाकसार पर जो महान उपकार कर रहे हैं उसके लिए वह आगामी सात पुश्तों तक आपका आभारी रहेगा और यदि श्रीमान चित्रगुप्तजी की भूल से उसे मोक्ष मिल गया तो वह आपके भी मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करेगा।
लेखक और पाठक के बीच वही पवित्र रिश्ता होता है, जो कवि और श्रोता के बीच होता है। पर जैसे कार्यकमों से इन दिनों श्रोता लुप्तप्रायः होते जा रहे हैं वैसे ही साहित्य से पाठक। एक युग था जब साहित्य ने आम आदमी की तलाश की थी और उस आदमी की तलाश में साहित्य खुद गुम हो गया था। पर अब लगता है पाठक नामक प्राणी जो है, वह गुमशुदा हो गया है। जब से इलेक्ट्रॉनिक युग आया है, नए पाठकों ने जन्म लेना ही बंद कर दिया है। और जो पुराने पाठक हैं वे भी किस्त-दर-किस्त दर्शकों में तब्दील होते जा रहे हैं।
कल ही एक लेखक ने अपना दुखड़ा रोते हुए कहा, 'क्या खाक लिखें! अव्वल तो संपादक महोदय छापते हैं, तो लोग पढ़ते नहीं। पहले एक रचना छपती थी तो बीस-पच्चीस फोन आ जाते थे। दिल को बड़ा सुकून मिलता था। दिमाग में रक्त का संचार बढ़ जाता था। पर अब आलम यह है कि लोगों को फोन कर-करके सूचित करना पड़ता है कि भाई, रचना छपी है, भगवान के नाम पर एक बार पढ़ ले बाबा!
एक वरिष्ठ लेखक का तो हाल यह है कि रचना छपने पर वे मित्रों को फोन पर ही पूरी रचना पेल देते हैं। नतीजा यह है कि इन दिनों उनके मित्र कम हो रहे हैं शत्रु ज्यादा! एक नवोदित लेखक ने पाठक प्रबंधन की नई तकनीक खोज निकाली है। अपनी रचना छपने पर वे मित्रों को कॉफी हाउस में आमंत्रित करते हैं और प्रकाशनोत्सव मनाते हैं।
व्यंग्य गुरु शरद जोशी ने पाठक अकाल के इस संकट को भाँपकर पहले ही लिख दिया था कि जैसे कवियों और लेखकों ने अकविता और अकहानी आंदोलन चलाए, अब पाठक अपाठन और अपुस्तक जैसे आंदोलन चलाने वाले हैं। लगता है, पाठकों का साहित्य से असहयोग आंदोलन का दौर शुरू हो चुका है।
पाठकों की प्रतिक्रिया के इंतजार में लेखक एक पाँव पर खड़े रहते हैं, पर प्रतिक्रिया जो है वह नहीं आती तो नहीं आती। एक लेखक ने थाने और थानेदार पर एक अदद व्यंग्य लिखा। पाठकों की प्रतिक्रिया तो नहीं आई। हाँ, थानेदार साहब की क्रिया अवश्य आई, जब लेखक महोदय का 'सार्वजनिक अभिनंदन' संपन्न हुआ।
बाजारवाद के दौर में जहाँ दूसरी जिन्सों का बाजार बढ़ा वहाँ साहित्य का बाजार जार-जार हो गया। पुस्तकें महज प्रदर्शनी की आयटम बन गईं। पिछले दिनों एक स्थानीय स्तर के राष्ट्रीय कवि ने जुगाड़ से अपना एक संकलन प्रकाशित कराया। विमोचन एक थ्री-स्टार होटल में हुआ।
ND
डिनर के अन्य स्टॉलों के साथ कविश्री ने अपनी नई पुस्तक को पचास फीसद डिस्काउंट (यानी एक के साथ एक फ्री) बेचने के लिए भी एक अदद स्टॉल लगाया। पर लोग-बाग पापी पेट के समाधान समारोह में इतने व्यस्त रहे कि किसी भी सज्जन या दुर्जन ने पुस्तक-स्टॉल की दिशा में भूल से भी झाँकने की गलती नहीं की। बेचारे कविराज के दिल के अरमाँ आँसुओं में बह गए और उन्होंने इस साहित्यिक त्रासदी पर एक लंबी रुदाली लिख डाली।
कभी लिखा गया था, 'मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः'। आज हमें कहना पड़ता है, 'संपादक देवो भवः, प्रकाशक देवो भवः। श्रोता देवो भवः, पाठक महादेवो भवः।' इस प्रकरण में कबीर, सूर और तुलसी बहुत भाग्यशाली रहे कि उन्होंने भक्तिकाल में ही जन्म ले लिया। आज के इलेक्ट्रॉनिक काल में न तो उन्हें श्रोता मिलते और न पाठक! संभव है प्रसाद, पंत और निराला को भी बिन पाठक सब सून लगता और वे निराश होकर किसी फिल्म या टीवी सीरियल के लिए पटकथा, संवाद या गीत लिखकर अपना गम गलत करते!
बहरहाल, पाठक इस सृष्टि पर तेजी से विलुप्त हो रही एक दुर्लभ प्रजाति है और इसके संरक्षण के लिए समाज को भयंकर रूप से चिंतन और मनन करने की जरूरत है। इति शुभम्। अब यदि आपने इस रचना को पढ़ लिया है तो खाकसार एक बार फिर आपका विनम्र आभार व्यक्त करता है। धन्यवाद!!