भारत की राजनीतिक बार्बियाँ

शांतिलाल जैन
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बार्बी को जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल का रूप दिया गया। आश्चर्य की बात है कि इस पर भारत में अब तक हंगामा नहीं मचा। ऑस्कर! हाय हम इंडियंस को नहीं मिलता जैसा कि कोई छातीकूट हंगामा। न मीडिया में, न सड़कों पर। बार्बी एज हायकमान, बार्बी एज संन्यासिन, बार्बी एज अम्मा, बार्बी एज दलित बहिनजी, बार्बी एज फायर ब्रांड नेत्री इन बंगाल जैसी कितनी संभावनाशील बार्बियाँ भारत की राजनीति के रैम्प पर कैटवॉक करती घूम रही हैं।

मगर, पश्चिम का अन्याय तो देखिए बार्बी एज मार्केल बनी दी और हमारी पोटेन्शियल बार्बीज की तरफ देखा भी नहीं! इस पर बहस के दो-चार टीवी प्रोग्राम तो हो ही सकते थे। कुछ एसएमएस पोल ही हो जाते। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं ने भी नोटिस नहीं लिया। बार्बी निर्माताओं के पुतले जलाए गए। शोरूम तोड़े जाते। बार्बी विक्रेताओं का मुँह काला करके उन्हें पीटा जाता। खैर, मैंने ही बार्बी बनाने वाली कंपनी से पूछा कि यह नाइंसाफी उन्होंने क्यों की। जो उत्तर उन्होंने दिया, उसका संक्षिप्त रूपांतर इस प्रकार हैः

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"बार्बी को आपके देश की महिला राजनेताओं का रूप धरवाने में खतरे बहुत हैं। एक तो आपके देश में ज्यादातर महिला नेत्रियों को अध्यक्ष बने रहने की लत पड़ गई है। हर बार्बी अपने आपमें अध्यक्ष है, अपने-अपने दल की। कभी-कभी किसी बार्बी का अध्यक्ष पद खतरे में पड़ने लगता है तो वह नई पार्टी बनाकर उसकी अध्यक्ष बन बैठती है। कल को तमाम बार्बियों की एक अध्यक्ष चुनने का मौका आ पड़े तो कैसी सिर फुटव्वल मचेगी साहब! हमारा तो धंधा ही चौपट हो जाएगा।

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दूसरा लफड़ा उनके समर्थकों का है। वे जिस शो-रूम में अपने दल की बार्बी को देखेंगे, वहीं साष्टांग प्रणाम चालू कर देंगे। आदमी माल बेचे कि पार्टी कार्यकर्ताओं को शो-रूम में लोट लगाने से रोके? अपनी-अपनी नेत्री-बार्बी के जन्मदिन पर तो पैर छूने वाले कार्यकर्ताओं की लाइन लग जाएगी। ऊपर से शो-रूम में ही पटाखे, बैंड, मिठाई, हार-फूल, धींगा-मस्ती। बाकी ग्राहक तो भाग ही जाएँगे। तौबा ऐसी बार्बी बनाने से!

तीसरा, तोड़फोड़ का एक और खतरा है। किसी दिन एक्स बार्बी ने आह्वान कर दिया कि वाय बार्बी को उसकी औकात बता दो तो शोकेस से निकालकर दचक-दचककर वाय बार्बी की बुरी गत बनाएँगे एक्स बार्बी के समर्थक। काँच फोड़ देंगे। हमारे फ्रेंचाइजियों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटेंगे। जितना कमाएँगे नहीं, उससे ज्यादा का नुकसान हो जाएगा।

चौथी दिक्कत यह है कि अकेले बार्बी तो बना नहीं सकते। साथ में कम से कम चार गनमैन बनाने पड़ेंगे। सिक्यूरिटी साथ रहने से शान बढ़ती है। आपके देश में नेताओं-नेत्रियों को आतंकवादियों से ज्यादा खतरा विरोधी दल के गुंडों से रहता है। ब्लैक कैट कमांडो से घिरी बार्बीज को देखकर छोटी बच्चियाँ घबरा नहीं जाएँगी?

पाँचवाँ ड्रेस- अप का सवाल है। आपके देश में बार्बीज की ड्रेस महँगी पड़ती है। बार्बी अम्मा बनाना हो तो पोचमपल्ली, कांजीवरम, मैसूर सिल्क पता नहीं कहाँ-कहाँ से ढूँढकर सिल्क साड़ियों का इंतजाम करना पड़े। ऊपर से बुलेटप्रूफ जैकेट। कहते हैं एक छापे में अम्मा के यहाँ साढ़े सात सौ जोड़ सैंडिल्स बरामद हुए थे। कितनी लागत बढ़ जाएगी साहब! और बार्बी एज दलित बहिनजी! असली डायमंड सेट से कम में सजना तो उन्हें क्या मंजूर होगा? तौबा हुजूर, इतनी महँगी बार्बी खरीदेगा कौन? बार्बी हायकमान तो जिस प्रदेश में जाती है, वैसी पोशाक पहन लेती हैं। कैसा पहनावा फाइनल करें, समझ ही नहीं आता।

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इन सब दिक्कतों के चलते कुछ भारतीय राजनीतिक बार्बियाँ बना भी ले तो रेपुटेशन खराब होने का डर है। आपके देश की नेत्रियों को जेल जाते रहने का शौक है। कभी भ्रष्टाचार के चलते, कभी प्रतिद्वंद्विता के चलते। कभी लंबा अंतराल आ जाए तो जेल भरो आंदोलन चलाकर वे घूम आती हैं वहाँ। हम नहीं चाहते हमारी बार्बी जेल रिटर्न कहलाए। बंगाल की जिस नेत्री की बार्बी बनाने को आप कह रहे हैं, वे साल में कम से कम दो बार पुलिस से पिटती हैं। कभी उपवास पर बैठती हैं तो कभी मोर्चा खोल देती हैं और वो बिहार वाली बार्बी, बिना पति से पूछे कुछ बोल ही नहीं पाती। बार्बी एज संन्यासिन कभी पदयात्रा पर तो कभी तीरथ मंदिर में। किस नेत्री की बार्बी बनाएँ हम?

हमारी बार्बीज रोल मॉडल्स होती है। वर्तमान में आपके देश की कौन-सी नेत्री इस काबिल है, जरा बताइए तो। माफ कीजिए साहब हम आपकी राजनेत्रियों जैसी बार्बियाँ नहीं बना पाएँगे।