भारत में चुनाव सुधारों की आवश्यकता

शनिवार, 25 अप्रैल 2009 (00:24 IST)
चप्पल, जूते, अपशब्द, भद्दी टिप्पणी, बाहुबली नेता, विचारधारा का अभाव, नीतियों के स्थान पर व्यक्तिगत आलोचना और चुनावी भ्रष्टाचार के जैसे अहम मुद्दे पर विशेषज्ञों का कहना है कि देश में लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए चुनाव सुधारों की महती आवश्यकता है।

प्रसिद्ध संविधानविद् सुभाष कश्यप ने कहा कि 15वीं लोकसभा के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ जिस प्रकार की राजनीति कर रही हैं वह किसी भी सूरत में लोकतंत्र के लिए लाभप्रद नहीं है। समय-समय पर चुनाव सुधार की सिफारिश की जाती रही है लेकिन इन्हें लागू करने में कोताही बरती जाती रही है।

अगस्त 1997 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति ने राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए कानून बनाने और प्रशासनिक उपाय करने का प्रस्ताव किया था। जुलाई 1998 में निर्वाचन आयोग ने सिफारिश की थी कि जिन व्यक्तियों के खिलाफ अदालत में आरोपपत्र दाखिल हो जाए उन्हें विधानमंडलों या संसद का चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए।

पाँच जुलाई 2004 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने सरकार को लिखा था कि 14 लोकसभा के चुनावों के दौरान चुनाव कानून में अनेक कमियाँ नजर आई हैं। कुछ उम्मीदवारों ने सूचना देते समय कुछ कॉलमों को खाली छोड़ दिया है और कुछ ने अपनी संपत्ति कम दर्शाई है।

मौजूदा कानून के अनुसार इन अपराधों के लिए छह महीने की कैद और जुर्माने की सजा का प्रावधान है। आयोग ने इसे बढ़ाकर दो वर्ष और जुर्माना राशि में वृद्धि जमानत राशि में वृद्धि एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर रोक एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की थी लेकिन ओपिनियन पोल पर सहमति नहीं बन सकी थी।

राजनीति के अपराधीकरण पर हाल ही में सेवानिवृत्त होने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने स्वीकार किया कि चुनाव लड़ रहे किसी भी व्यक्ति के खिलाफ राजनीति से प्रेरित मामले दर्ज किए जा सकते हैं इसीलिए चुनाव से छह माह पूर्व दर्ज किए गए मामलों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि आज कानून कहता है कि दोषी ठहराया जा चुका व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता। ऐसी भी आशंका होती है कि झूठे मामले दर्ज किए जा सकते हैं और सत्तारूढ़ सरकार विपक्ष को निशाना बना सकती है। मेरी राय है कि अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए।

पूर्व निर्वाचन आयुक्त ने कहा कि राजस्थान में पंचायत और नगर निकायों के चुनावों में अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कानून हैं। अगर यह वहाँ काम कर सकता है तो हम इसे आम चुनावों में भी प्रयोग में ला सकते हैं।

गोपालस्वामी ने धन के बेजा इस्तेमाल के बारे में कहा मैं यह नही कह रहा हूँ कि अमीर व्यक्ति को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए लेकिन जो धनराशि खर्च की जा रही है वह बहुत है।

गोपालस्वामी ने कहा कि पूर्व में इस बारे में आयोग ने एक प्रस्ताव तैयार किया था जिसे विधि मंत्रालय से संबद्ध संसदीय समिति के पास भेजा गया था।

लगभग 25 वर्ष पहले जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 77 की उपधारा एक में स्पष्टीकरण जोड़ा गया। इसके तहत उम्मीदवार के अलावा राजनीतिक पार्टी मित्र और समर्थक किसी अन्य व्यक्ति द्वारा खर्च किया गया धन उम्मीदवार के खर्चे में शामिल नहीं किया जाएगा।

इस स्पष्टीकरण के तहत किसी उम्मीदवार के चुनाव में उसकी पार्टी या समर्थकों द्वारा बेहिसाब धन खर्च किया जा सकता है। इस स्पष्टीकरण की आलोचना की जाती रही है, लेकिन निहित स्वार्थों के चलते इसे हटाया नहीं जा सका है।

समाजशास्त्री सुरेन्द्र मोहन का कहना है कि चुनाव आयुक्त पद पर रहते हुए टीएन शेषन और एमएस गिल ने चुनाव सुधारों की कोशिश की लेकिन बाद के चुनाव आयुक्त में इसका अभाव दिखा। उन्हें भी पद पर रहते हुए प्रयास करना चाहिए था।

राजनीतिक दलों में चुनावी भ्रष्टाचार की बुराई को चुनाव सुधार के जरिये दूर किया जाए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ के लिए लोकतंत्र सुरक्षित हो सके। एक ऐसी व्यवस्था का प्रावधान हो जिसमें आपराधिक तत्वों को दूर रखा जा सके और ईमानदार लोगों को चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके।

बीते सालों के दौरान इंद्रजीत गुप्ता समिति, दिनेश गोस्वामी समिति, विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट और संविधान समीक्षा समिति ने महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि चुनाव सुधार के संबंध में एमएन वेंकटचलैया और निर्वाचन आयोग के नेतृत्व वाली संविधान समीक्षा समिति को अनेक सुझाव दिए गए हैं। इन सिफारिशों पर जितनी जल्दी कार्रवाई करें उतना ही भारतीय लोकतंत्र के हित में होगा।

वेबदुनिया पर पढ़ें