मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री की दौड़ में कहीं भी मोहन यादव का नाम नहीं था, जो नाम थे वो मध्यप्रदेश के दिग्गज नेताओं के थे। लेकिन उन्होंने सारे नामों को पछाड़ते हुए मध्यप्रदेश की कमान अपने नाम कर ली। अब प्रदेश में शिवराज की जगह मोहन राज की चर्चा है। हालांकि यह जिम्मेदारी मिलने का अहसास शायद खुद मोहन यादव को भी नहीं था।
ऐसे में मध्यप्रदेश की राजनीति में एक ही सवाल गूंज रहा है कि वो क्या वजहें हैं और किसके इशारे पर मोहन यादवको प्रदेश की कमान सौंपी गई है। दरअसल, मोहन यादव के एमपी के सीएम बनने के पीछे एक दो नहीं, बल्कि कई राजनीतिक समीकरण साधने की बात सामने आ रही है। इनमें मोहन यादव की संघ से करीबी से लेकर लोकसभा चुनाव, यूपी-बिहार में यादवों के खेमों में सेंध और मध्यप्रदेश में दिग्गजों के कद को घटाने तक की खबरें हैं। समझते हैं आखिर किसके इशारे पर मोहन यादव को मिली एमपी की कमान।
क्या संघ ने दिलाया ताज?
मोहन यादव महाकाल की नगरी उज्जैन से आते हैं, उज्जैन की दक्षिण से विधायक हैं। उन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आरएसएस का बेहद करीब माना जाता है। शिवराज सिंह सरकार में वह उच्च शिक्षा मंत्री का पद भी संभाल चुके हैं। वह उज्जैन दक्षिण से लगातार जीतने वाले पहले नेता हैं। मोहन यादव पहली बार 2013 में विधायक बने थे। इस बार चुनाव में उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार से तकरीबन 12941 मतों से जीत हासिल की थी। माना जा रहा है कि संघ से उनकी करीबी की वजह से उन्हें मध्यप्रदेश का सीएम बनाया गया है। वे लगातार संघ में सक्रिय रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि बीजेपी ने मोहन यादव को सीएम चुनकर कई हित साधने की कोशिश की है। जिसमें मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार का यादव खेमा भी है। दूसरी तरफ जानकारों का तो यहां तक कहना है कि शिवराज सिंह चौहान के लगातार सीएम रहने से सरकार के खिलाफ जो एंटी इन्क्बैंसी बनी हुई थी, उसे नया चेहरा लाकर भाजपा उसे रोकने की कोशिश में थी।
मोहन यादव के बहाने यूपी-बिहार
बता दें कि बिहार में जातिगत सर्वे के नतीजे सामने आने के बाद से विपक्षी दलों का गठबंधन इंडिया और कांग्रेस पार्टी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) जातियों की हिस्सेदारी का मुद्दा लगातार उठा रही है। ऐसे में भाजपा के लिए भी यह मुद्दा एक चुनौती बना हुआ है। इससे निपटने की कवायद में भी भाजपा लगी हुई है। शिवराज सिंह चौहान ओबीसी से हैं और उनकी जगह लेने वाले मोहन यादव भी ओबीसी से ही आते हैं। जानकारों का कहना है कि उनकी नियुक्ति के जरिए बीजेपी की नजर बिहार और उत्तर प्रदेश पर भी है। जिसका फायदा भाजपा लोकसभा में उठाना चाहती है।
भाजपा की यादव खेमें में सेंधमारी
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा ने मोहन यादव के बहाने हिंदी भाषी इलाकों में राजनीतिक प्रभाव रखने वाले यादव परिवारों में सेंध लगा दी है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब मोहन यादव यूपी और बिहार जैसे राज्यों में जहां यादवों की मजबूत उपस्थिति है, वहां प्रचार करेंगे तो कैसा प्रभाव पड़ेगा। वह कहते हैं कि अगर लोकसभा में यादवों का एक वर्ग भाजपा में चला जाता है तो भी इसका प्रभाव बहुत बड़ा होगा, क्योंकि भाजपा के पास पहले से ही महत्वपूर्ण बढ़त है। संकेत दिया जा रहा है कि भाजपा सपा और राजद के किले भेदने की भी एक कोशिश की है।
मोदी का यादवों को मैसेज
कहा जा रहा है कि अगर पार्टी ने यूपी या बिहार में किसी यादव को शीर्ष पद पर बिठाया होता, तो इससे ओबीसी वर्ग की दूसरी जातियों में नाराजगी हो सकती थी। लेकिन मध्य प्रदेश का मामला अलग है। मध्य प्रदेश के माध्यम से किसी और को परेशान किए बिना यादवों को एक संकेत भेजा गया है।
क्या दिग्गजों का कद घटाने की कवायद?
मोहन यादव के सीएम बनाने के पीछे दूसरा राजनीतिक तर्क यह है कि भाजपा आलाकमान ने मध्यप्रदेश में लगातार बढते दिग्गज नेताओं के कद को एक तरह से घटाने की कोशिश की है। यह तो सभी जानते हैं कि पांच राज्यों का ताजा विधानसभा चुनाव पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा गया था। यहां तक कि भाजपा के घोषणा पत्र में भी मोदी की गारंटी वाला नारा प्रमुखता से लिखा था। ऐसे में अटकलें लगाई जा रही है कि किसी भी हाल में आलाकमान का आभामंडल दूसरे बड़े होते नेताओं की वजह से धुंधला न पड़े। क्योंकि लोकसभा चुनाव में फायदा लेने के लिए पार्टी पीएम मोदी का चेहरा सबसे आगे रखना चाहती है। जाहिर है लोकसभा चुनाव भी पीएम मोदी के नाम से लड़ा जाना है। यह भी कहा जा रहा है प्रदेश के दिग्गज नेताओं का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल लोकसभा की सीटें जिताने के लिए किया जाना है, ऐसे में प्रदेश की राजनीति से उनका ध्यान हटाना भी एक वजह मानी जा रही है।
Edited By : Navin Rangiyal