Inside story : मिशन 2023 के लिए आदिवासी नेतृत्व की तलाश में मध्यप्रदेश भाजपा ?

विकास सिंह

मंगलवार, 30 अगस्त 2022 (15:32 IST)
भोपाल। मध्यप्रदेश का चुनाव इतिहास बताता है कि आदिवासी वोटर जिस पार्टी के साथ जाता है वह पार्टी सत्ता में काबिज हो जाती है। ऐसे में 2023 में होने विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश की सियासत में आदिवासी वोटर और आदिवासी नेतृत्व को लेकर एक बार फिर सियासी चर्चा तेज हो गई है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही आदिवासी नेतृत्व को आगे बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रही है। विधानसभा चुनाव से पहले आदिवासी वोट बैंक को साधने के लिए भाजपा ने नए सिरे से रणनीति बनाना शुरु कर दिया है। 
 
आदिवासी वोटरों को रिझाने के लिए भाजपा ने आदिवासी चेहरों को प्रदेश की राजनीति में फ्रंट पर लाना शुरु कर दिया है। भाजपा की नजर आदिवासी के उन चेहरों पर टिकी हुई है जिनकी आदिवासी समाज के बीच एक स्वच्छ छवि है। अगर मध्यप्रदेश में भाजपा के प्रमुख आदिवासी चेहरों की बात करें उसमें केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते, शिवराज सरकार में मंत्री विजय शाह, राज्यसभा सांसद सुमेर सिंह सोलंकी और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान प्रमुख है। इसके अलावा खरगौन सांसद गजेंद्र पटेल, सुलोचना रावत और अनुसूचित जनजाति मोर्चे के प्रदेश अध्यक्ष कल सिंह भाबर भी आदिवासी चेहरे के तौर पर जाने जाते है। 
 
2018 के विधानसभा चुनाव के बाद लगातार भाजपा प्रदेश की सियासत में आदिवासी चेहरों को आगे करने में जुटी हुई है। आदिवासी वोटरों को रिझाने के लिए भाजपा ने सुमेर सिंह सोलंकी 2020 में राज्यसभा भेजना भी एक रणनीति का हिस्सा था। सुमेर सिंह सोलंकी निमाड़ के आदिवासी बारेला समुदाय से आते है। आदिवासी में बारेल समुदाय के संख्या 65 फीसदी है। 
ALSO READ: मध्यप्रदेश में भाजपा दिग्गजों की मेल-मुलाकातों और दिल्ली दौड़ ने बढ़ाया सियासी पारा
इसके अलावा मालवा से आने वाले हर्ष चौहान को केंद्रीय नेतृत्व ने आगे बढ़ाने का काम किया है। 2021 में केंद्रीय नेतृत्व ने हर्ष चौहान को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी। संघ की पृष्ठिभूमि से आने वाले हर्ष चौहान ने आरएसएस के अनुषांगिक संगठन वनवासी कल्याण परिषद के जरिए आदिवासी क्षेत्र में अपनी गहरी पैठ बनाई है। आरएसएस ने आदिवासियों को भाजपा के पक्ष में करने में जो बड़ी भूमिका निभाई है, लउसमें हर्ष चौहान की भूमिका महत्वपूर्ण है। आरएसएस ने आदिवासी क्षेत्र में धार्मिक अनुष्ठानों, धार्मिक यात्राओं के साथ शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम कर आदिवासी समुदाय के युवा वोटर को साधने की कोशिश की है। 

वहीं आदिवासी बाहुल्य महाकौशल में आने वाले मंडला सीट से 6 बार के सांसद और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते बतौर आदिवासी चेहरा केंद्र सरकार में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व करते है। फग्गन सिंह कुलस्ते मध्यप्रदेश में बड़ा आदिवासी चेहरा है और आदिवासी समुदाय में अपनी गहरी पैठ रखते है। शिवराज सराकर में कैबिनेट मंत्री विजय शाह भी भाजपा के प्रमुख आदिवासी चेहरा है। निमाड़ में आदिवासी वोटरों के बीच विजय शाह काफी प्रभावी माने जाते है। हलांकि फग्गन सिंह कुलस्ते और विजय शाह अपने बयानों के चलते अक्सर सुर्खियों में रहते है।   
ALSO READ: क्या सिंधिया-कैलाश की जुगलबंदी और अमित शाह की वन-टू-वन चर्चा मध्यप्रदेश की सियासी तस्वीर बदलने का है संकेत?
आदिवासी नेतृत्व को बढ़ना क्यों जरूरी?-दरअसल 2018 के विधानभा सभा चुनाव में कांग्रेस ने आदिवासी संगठन जयस को साध कर भाजपा को तगड़ा झटका दिय़ा। आदिवासी क्षेत्र में जयस काफी सक्रिय है और 2023 विधानसभा चुनाव में जयस के सहारे मालवा-निमाड़ कई प्रमुख चेहरे चुनाव लड़ने की तैयारी में है। 2023 में भाजपा के सामने चुनौती जयस के साथ भारतीय ट्राइबल पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भी है। ऐसे में भाजपा 2023 विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा अब मालवा-निमाड़ के आदिवासी नेतृत्व को आगे लाने की रणनीति पर काम कर रही है। 

आदिवासी क्षेत्रों पर फोकस राहुल गांधी की यात्रा-आदिवासी क्षेत्रों पर फोकस राहुल की भारत जोड़ो यात्रा- राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान मध्यप्रदेश में आदिवासी क्षेत्रों पर फोकस करेंगे। मालवा-निमाड़ में बुरहानपुर, झाबुआ, अलीराजपुर, बड़वानी, खरगोन और धार जिले के आदिवासी क्षेत्रों को राहुल की यात्रा में शामिल किया गया है। राहुल गांधी की यात्रा के जरिए कांग्रेस आदिवासी के परंपरागत वोट बैंक में अपनी पकड़ मजबूत करना चाह रही है। जिसका फायदा उसको विधानसभा चुनाव में मिल सकते। पिछले दिनों कांग्रेस ने वि्श्व आदिवासी दिवस पर मालवा-निमाड़ में बड़े कार्यक्रमों का आयोजन कर अपनी रणनीति साफ भी कर दी है। 
 
2018 में BJP को उठाना पड़ा खामियाजा-आदिवासी नेतृत्व नहीं होने का खामियाजा भाजपा को 2018 के विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ा था। 2018 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वोट बैंक भाजपा से छिटक कर कांग्रेस के साथ चला गया था और कांग्रेस ने 47 सीटों में से 30 सीटों पर अपना कब्जा जमा लिया था। वहीं 2013 के इलेक्शन में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों में से बीजेपी ने जीती 31 सीटें जीती थी। जबकि कांग्रेस के खाते में 15 सीटें आई थी। ऐसे में देखा जाए तो जिस आदिवासी वोट बैंक के बल पर भाजपा ने 2003 के विधानसभा चुनाव में सत्ता में वापसी की थी वह जब 2018 में उससे छिटका को भाजपा को पंद्रह ‌साल बाद सत्ता से बाहर होना पड़ा। 
 
2023 विधानसभा चुनाव से पहले आदिवासी वोटरों को रिझाने में भाजपा और कांग्रेस दोनों एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। भाजपा आदिवासी वोट बैंक को अपने साथ लाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की मौजदूगी में पार्टी राजधानी भोपाल से लेकर जबलपुर तक पिछले दिनों बड़े कार्यक्रम कर चुकी है।
 
2023 के विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा आने वाले दिनों में आदिवासी समुदाय से आने वाले किसी नेता को बड़ी जिम्मेदारी सौंपकर आदिवासी वोट बैंक को सीधा संदेश दे सकती है। आदिवासी वोट बैंक को लेकर संघ भी लगातार अपनी चिंता जताता है। 

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी