महाभारत का युद्ध विचित्रताओं से भरा हुआ है। कौरव पक्ष के बहुत से लोग पांडवों की ओर से लड़े तो पांडव पक्ष के लोग कौरवों की ओर से लड़े से। ऐसे भी थे जिन्होंने युद्ध तय होने के बाद अपना पाला बदल लिया था। आओ जानते हैं कि ऐसे कौन से लोग थे।
1.शल्य
महाभारत में शल्य तो पांडवों के मामा थे लेकिन उन्होंने कौरवों की ओर से लड़ाई-लड़ते हुए पांडवों को ही फायदा पहुंचाया था। दरअसल, शल्य ने जब हस्तिनापुर का राज्य में प्रवेश किया तो दुर्योधन ने उनका भव्य स्वागत किया। बाद में दुर्योधन ने उनको इमोशनली ब्लैकमेल कर उनसे अपनी ओर से लड़ने का वचन ले लिया। उन्होंने भी शर्त रख दी कि युद्ध में पूरा साथ दूंगा, जो बोलोगे वह करूंगा, परन्तु मेरी जुबान पर मेरा ही अधिकार होगा। दुर्योधन को इस शर्त में कोई खास बात नजर नहीं आई। शल्य बहुत बड़े रथी थे। उन्हें कर्ण का सारथी बनाया गया था। वे अपनी जुबान से कर्ण को हतोत्साहित करते रहते थे। यही नहीं प्रतिदिन के युद्ध समाप्ति के बाद वे जब शिविर में होते थे तब भी कौरवों को हतोत्साहित करने का कार्य करते रहते थे।
2.युयुत्सु
युयुत्सु तो कौरवों की ओर से थे। वे कौरवों के भाई थे लेकिन उन्होंने चीरहरण के समय कौरवों का विरोध कर पांडवों का साथ दिया था। बाद में जब युद्ध हुआ तो वह ऐन युद्ध के समय युधिष्ठिर के समझाने पर पांडवों के दल में शामिल हो गए थे। अपने खेमे में आने के बाद युधिष्ठिर ने एक विशेष रणनीति के तहत युयुत्सु को सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतारा बल्कि उनकी योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया।
3.नारायणी सेना के सेनापति- सात्यकि
युद्ध के पहले दुर्योधन भी श्रीकृष्ण से युद्ध में अपनी ओर से लड़ने का प्रस्ताव लेकर द्वारिका गया। उसके कुछ देर बाद ही अर्जुन भी वहां श्रीकृष्ण से युद्ध में सहयोग लेने के लिए पहुंच गए। उस दौरान श्रीकृष्ण सोए हुए थे। दोनों ने उनके जागने का इंतजार किया। जब श्रीकृष्ण की आंखें खुली तो उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को देखा क्योंकि वह श्रीकृष्ण के चरणों के पास बैठा था।
अर्जुन को देखर उन्होंने कुशल क्षेम पूछने के बाद आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, 'हे वासुदेव! मैं भावी युद्ध के लिए आपसे सहायता लेने आया हूं।' अर्जुन के इतना बोलते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, 'हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिए आया हूं। चूंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूं इसीलिए सहायता मांगने का पहला अधिकार होना चाहिए है।'
दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, 'हे दुर्योधन! मेरी दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है और तुम कहते हो कि तुम पहले आए हो। अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूंगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूंगा। अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिए।' तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्रीकृष्ण की विशाल सेना नारायणी सेना का सहयोगी लेने ही तो आया था। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गए। कालारिपयट्टू विद्या में पारंगत श्रीकृष्ण की 'नारायणी सेना' को उस काल में भारत की सबसे भयंकर प्रहारक माना जाता था।
सात्यकि नारायणी सेना प्रधान सेनापति थे। कायदे से उन्हें अर्जुन की ओर से लड़ना चाहिए थे लेकिन उन्होंने पांडवों की ओर से लड़ने का तय किया था।