भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर, देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदाइश कवच और कुंडल है, वह युद्ध में अजेय रहेगा।
एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाएं अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और विप्रवर को सौंप दिए। इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर स्वर्ग की ओर भागने लगे। लेकिन कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा। जब तक की इस छल की भरपाई नहीं करता है।
इसके बाद इंद्रदेव उस कवच कुंडल को स्वर्ग नहीं ले जा पाए क्योंकि उन्होंने इसे झूठ से प्राप्त किया था। ऐसे में उन्होंने इस कवच कुंडल को किसी समुद्र के किनारे छुपा दिया। इंद्र को छुपाते हुए चंद्रदेव ने देख लिया। बाद में चंद्रदेव उस कवच कुंडल को निकालकर भागने लगे लेकिन समुद्र देव ने उन्हें रोक दिया और कहा कि यह मेरी सुरक्षा में है। तभी से वह कवच कुंडल समुद्र देव और सूर्यदेव की सुरक्षा में है।