Mahabharata war: अपनी चिरहरण के बाद द्रौपदी ने पांडवों से कहा कि यदि तुम दुर्योधन और उनके भाइयों से मेरे अपमान का बदला नहीं लेते हो तो धिक्कार है तुम्हें। द्रौपदी ने पांडवों से कहा कि मेरे केश अब तब तक खुले रहेंगे जब तक कि दुर्योधन के खून से इन्हें धो नहीं लेती। उस समय द्रौपदी ने ऋतु स्नान नहीं था। इस घटना ने पांडवों को झकझोर दिया था जिसके चलते कुरुक्षेत्र का युद्ध हुआ। सवाल यह है कि युद्ध के समय द्रौपदी कहां रहती थीं और कुंती एवं गांधारी क्या करती थीं?
चीरहरण के समय भीम ने कसम खाई कि मैं दुर्योधन की जांघ को गदा से तोड़ दूंगा और दु:शासन की छाती को चीरकर उसका रतक्तपान करूंगा। चीरहरण के दौरान कर्ण ने द्रौपदी को बचाने की जगह कहा, 'जो स्त्री पांच पतियों के साथ रह सकती है, उसका क्या सम्मान।' यह बात द्रौपदी को ठेस पहुंचा गई और वह हर समय अर्जुन को कर्ण से युद्ध करने के लिए उकसाती रही।
महाभारत में रोज हजारों लाखों योद्धा मारे जाते थे। रोज के युद्ध के अंत में सभी योद्धाओं का दाह संस्कार कर दिया जाता था। युधिष्ठिर ने एक ओर जहां युद्धभूमि पर ही वीरगति को प्राप्त योद्धाओं का दाह-संस्कार किया वहीं उन्होंने बाद में दोनों ही पक्षों के अपने परिजनों का अंत्येष्टि कर्म करने के बाद उनका श्राद्ध-तर्पण आदि का कर्म भी किया।
युद्ध के बाद दुर्योधन कहीं जाकर छुप गया था। पांडवों ने उसे खोज लिया तब भीम और दुर्योधन का गदा युद्ध हुआ। इस युद्ध को देखने के लिए बलराम भी उपस्थित थे। भीम कई प्रकार के यत्न करने पर भी दुर्योधन का वध नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि दुर्योधन का शरीर वज्र के समान कठोर था। ऐसे समय श्रीकृष्ण ने अपनी जंघा ठोककर भीम को संकेत दिया जिसे भीम ने समझ लिया। तब भीम ने दुर्योधन की जंघा पर प्रहार किया और अंत में उसकी जंघा उखाड़कर फेंक दी। बाद में दुर्योधन की मृत्यु हो गई।
युद्ध के 15 वर्ष बाद धृतराष्ट्र, गांधारी, संजय और कुंती वन में चले जाते हैं। एक दिन धृतराष्ट्र गंगा में स्नान करने के लिए जाते हैं और उनके जाते ही जंगल में आग लग जाती है। वे सभी धृतराष्ट्र के पास आते हैं। संजय उन सभी को जंगल से चलने के लिए कहते हैं, लेकिन धृतराष्ट्र वहां से नहीं जाते हैं, गांधारी और कुंती भी नहीं जाती है। जब संजय अकेले ही उन्हें जंगल में छोड़ चले जाते हैं, तब तीनों लोग आग में झुलसकर मर जाते हैं। संजय उन्हें छोड़कर हिमालय की ओर प्रस्थान करते हैं, जहां वे एक संन्यासी की तरह रहते हैं। एक साल बार नारद मुनि युधिष्ठिर को यह दुखद समाचार देते हैं। युधिष्ठिर वहां जाकर उनकी आत्मशांति के लिए धार्मिक कार्य करते हैं।