बीसवीं सदी के महान उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल ने अपने एक निबंध, 'गांधी : कुछ विचार' में कहा है- 'संतों को हमेशा ही तब तक दोषी मानना चाहिए, जब तक वे अपने को दोषरहित साबित न कर दें, लेकिन इसके लिए जो परीक्षण अपनाए जाएँ, वे सभी के लिए समान नहीं होते हैं। गांधी को लेकर सवाल यह है कि गांधी किस हद तक ऐसे संतत्व से एक विनम्र और चेतनाशील फकीर के रूप में संचालित थे, जो बिना संत हुए भी चटाई पर बैठकर प्रार्थना गाते-गाते दुनिया के सबसे बड़े, तगड़े और ताकतवर साम्राज्य को अपनी आत्मा की ताकत से हिला रहे थे। गांधी ने साम्राज्य को आत्मा की ताकत से हिलाया, प्रार्थना से हिलाया, सामान्य मनुष्य की तरह जीकर और अपना काम करते हुए बिना संतत्व का बाना पहने, बिना अवतार, पीर, पैगम्बर कहलाए, बिना किसी धर्म, मजहब या रिलीजन को छोटा या बड़ा बताए।