मजबूरी नहीं 'मजबूती' का दूसरा नाम है महात्मा गांधी....
पुरुषोत्तम अग्रवाल
'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ये मैं भी मानता था बहुत लंबे अर्से तक। मैं भी इसे कहता था। अल्पता के बोध के साथ कह सकता हूं कि तब 'रहहुं अति ही अचेत' जब कहा करता था कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। धीरे-धीरे मैंने महसूस किया और गौर से सोचें तो हम सब महसूस कर सकते हैं कि असल में मजबूरी हिंसा है। हिंसा दृढ़ता और शक्ति को प्रकट नहीं करती। हिंसा मजबूरी को प्रकट करती है।
मैं आज तक किसी ऐसे व्यक्ति, विचार या सत्ता के संपर्क में नहीं आया हूं, जिसने हिंसा करते हुए यह न कहा हो कि हम तो हिंसा के लिए मजबूर थे। राज्यसत्ता हिंसा करती है क्योंकि उसे व्यवस्था बनाए रखने की मजबूरी है। क्रांतिकारी हिंसा करते हैं क्योंकि राज्यसत्ता ने उन्हें विवश कर दिया है, उन्हें मजबूर कर दिया है कि वे हिंसा करें। अध्यापक हिंसा करते हैं क्योंकि बिना हिंसा और अनुशासन के बच्चों को सिखाया नहीं जा सकता। बच्चे हिंसा करते हैं क्योंकि हिंसा के बिना समाज सुनने को तैयार नहीं है।
प्रश्न सभ्यता के रूपों भर का नहीं है। सभ्यता की मूल प्रेरक शक्ति का है। गांधीजी जब यह कहते हैं कि यंत्र का प्रेरक तत्व प्रेम होना चाहिए लोभ नहीं, तो वे कितनी गहरी सभ्यता की समीक्षा कर रहे हैं- यह जानने के लिए याद रखना चाहिए कि प्लेटो ने सभ्यता की परिभाषा कीहै- संपत्ति की रक्षा के लिए किया जाने वाला संगठन। इस अर्थ में गांधीजी का हिन्द स्वराज केवल पश्चिमी सभ्यता की समीक्षा नहीं है। वह सभ्यता के गठन मात्र की समीक्षा है।
यही कारण था कि गांधीजी अपने जीवन में अनवरत नैतिक सापेक्षतावाद से लड़ते रहे। गांधीजी को कभी यह नहीं लगा कि राज्य की हिंसा निंदनीय है और क्रांतिकारियों की हिंसा स्वीकार्य है। और अपनी इस मान्यता के लिए उन्होंने अपने जीवन में काफी लानत-मलामत सही। उनका काफी विरोध भी हुआ।
गां धीजी की नैतिक प्रामाणिकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने कभी नैतिक सापेक्षतावाद की शरण नहीं ली। उन्होंने इस बात को बारंबार कहा कि संसार का कोई भी धर्म हो, कोई भी धार्मिक वचन हो, कोई भी धर्मग्रंथ हो, अगर वह बुनियादी मानवीय सार्वभौम मूल्यों के अनुकूल नहीं है तो उसे मैं स्वीकार नहीं करूँगा। यह कहने के लिए साहस चाहिए और खास करके ऐसे व्यक्ति द्वारा कहने के लिए जो भिन्न प्रसंगों में बेधड़क अपने आपको सनातनी हिन्दू कहता था।
गांधीजी के बारे में ये बातें करना ऐसा लगता है कि हम अजूबा व्यक्ति के बारे में बातें कर रहे हैं। यह स्वाभाविक है इसलिए कई मित्रों को लगता है कि गांधीजी की अब क्या प्रासंगिकता रह गई है। गांधीजी जिस माहौल में थे, जिस तरह के वातावरण में थे जिस दुनिया में थे वो दुनिया पीछे छूट गई, अब क्या होगा?
हम उस याद को सुन पाएं या न सुन पाएं, गांधीवादी मुहावरे में कहें तो परमात्मा की आवाज जो मेरे-आपके-सबके मन में कहीं न कहीं कौंधती है- बिना संयम और करुणा के मैं मनुष्य नहीं हो सकता- वह आवाज जो हम सबके मन में कौंधती है और हमें प्रेरित करती है, विवश करती है कि हम सही वक्त पर सही फैसला करें। हम कर नहीं पाते वह एक अलग मसला है लेकिन वह संभावना सदा बनी रहती है- वह संभावना जिसका एक नाम मजबूती है और दूसरा नाम महात्मा गांधी।