भगवान महावीर का चिंतन

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वस्तु किसी की भी मिल्कियत नहीं है। वह किसी के भी स्वामित्व में नहीं है। यह कहना कि घोड़ा राजा का है, केवल लौकिक व्यवहार है। वास्तव में तो घोड़ा खुद घोड़े का ही है। वह स्वयं का अपना है।

एक घनघोर सामंतवादी युग में महावीर का यह चिंतन एक सर्वज्ञ का हजारों साल आगे का चिंतन है। ढाई हजार साल बाद भी हम अभी उनकी कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। तमाम पदार्थों का तो क्या अभी हम मनुष्य का स्वातंत्र्य भी उपलब्ध नहीं कर पाए हैं।

स्त्री स्वातंत्र्य 'सिमॉन द बोउआ की सेकंड सेक्स' जैसी किताबों या संगोष्ठियों का ही विषय भर बन पाया है। घरेलू हिंसा की क्रूरतम सीमा तक सभी क्षेत्रों में वर्चस्ववाद हावी है।

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हिंदी की स्त्री कविता में सामाजिक विमर्श की जमीन से उठा यह बुनियादी सवाल कि 'मैं किसकी औरत हूँ?' और इसका जवाब कि 'मैं किसी की औरत नहीं हूँ? मैं अपनी औरत हूँ।' (अपने जैसा जीवन : सविता सिंह) महावीर के चिंतन की अनुकूलता में है।

वस्तु चाहे छोटी हो या बड़ी, जड़ हो या चेतन इतनी विराट है कि हम उसे उसकी संपूर्णता में युगपत (एक साथ) देख ही नहीं सकते। आइसबर्ग पानी की सतह पर जितना दिखाई देता है उससे कहीं अधिक बड़ा होता है। उसका अधिकांश सतह के नीचे होता है।

दृश्य आकार के आधार पर उसे टक्कर मारने वाला जहाज उससे टकरा कर खंड-खंड हो सकता है। टायटेनिक जहाज को आइसबर्ग से टकराना ही तो महँगा पड़ा था। यही हाल सभी वस्तुओं का है। वे आइसबर्ग की तरह है।

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