महावीर की वाणी है 'उठ्ठिये णो पमायए' - यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो।
प्रमाद का अर्थ है नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनों से अपने पराए हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न होना। 'मैं' का संवेदन भी प्रमाद है जो दुख का कारण बनता है।
प्रमाद में हम अपने आपकी पहचान औरों के नजरिए से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। चरित्र का सुरक्षा कवच अप्रमाद है, जहां जागती आंखों की पहरेदारी में बुराइयों की घुसपैठ संभव ही नहीं। बुराइयां दूब की तरह फैलती हैं मगर उनकी जड़ें गहरी नहीं होतीं, इसलिए उन्हें थोड़े से प्रयास से उखाड़ फेंका जा सकता है।
ज्योंही स्वयं पर स्वयं का विश्वास एवं अपनी बुराइयों का बोध जागेगा, परत-दर-परत जमी बुराइयों एवं अपसंस्कारों में बदलाव आ जाएगा।
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जिंदगी की सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि चरित्र जितना ऊंचा और सुदृढ़ होगा, जीवन मूल्य उतनी ही तेजी से विकसित होंगे और सफलताएं उतनी ही तेजी से कदमों को चूमेगी।
अप्रमाद क्षणजीवी बनने की प्रेरणा है। बिन बतलाए वक्त का एक लम्हा भी आगे सरकने न पाए, ऐसी जागृति चाहिए।
भगवान महावीर के अप्रमत्तता के संदर्भ में जीवन का निचोड़ रखा जो भी व्यक्ति अपना वर्ममान और भविष्य उज्ज्वल, श्रेष्ठ देखना-पाना चाहे वह जीए जाने वाले प्रत्येक क्षण के प्रति सावधान रहे, क्योंकि सिद्धांत की भाषा में व्यक्ति की उम्र के तिहाई भाग में अगले जन्म का गतिबंध होता है।
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यह शाश्वत नियम है पर वह तिहाई भाग कौन-सा होगा? कब होगा? कोई नहीं जानता। इसलिए समयं गोयम! मा पमायए का बोधि स्वर गूंजा और सत्यान्वेषी साधक को शुद्ध साध्य तक पहुंचने के लिए शुद्ध साधन की जरूरत हुई।
बस, वही क्षण जीवन का सार्थक है जिसे हम पूरी जागरूकता के साथ जीते हैं और वही जागती आंखों का सच है जिसे पाना हमारा मकसद है। नई सोच के साथ नए रास्तों पर फिर उस सफर की शुरुआत करें जिसकी गतिशीलता जीवन मूल्यों को फौलादी सुरक्षा दे सके। इसी सच और संवेदना की संपत्ति ही मानव की अपनी होती है।