कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन ही स्वाति नक्षत्र में केवल्य ज्ञान प्राप्त करके भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था। जैन धर्म में धन लक्ष्मी, राज्य लक्ष्मी, यश लक्ष्मी, वैभव लक्ष्मी व ज्ञान लक्ष्मी की बजाय वैराग्य लक्ष्मी की प्राप्ति पर बल दिया गया है।
प्रत्येक जीव पुनः जन्म पुनः भरण के दुःखों को जानता है, उसका विचार भी करता है, इस पुनः पुनः जन्म एवं पुनः पुनः मरण से स्वयं को मुक्त कर ले, किंतु लोभ, मोह, माया और क्रोध इन चारों महादोष के रहते उसका निर्वाण संभव नहीं है।
विश्व का मूल है कर्म, कर्म का मूल है 'कषाय' जो कर्मों के आदान, लोभ, माया और क्रोध का वमन, त्याग व निरोध करता है, वही स्वकृत कर्मों का भेत्ता अर्थात् नाश करने वाला बनता है।
वास्तव में यदि देखा जाए तो इन सबके पीछे काम भावना ही कार्यरत है। काम से क्रोध उत्पन्न होता है। जो क्रोध दर्शी होता है वह मान दर्शी होता है आगे चलकर मान दशी सेमाया दर्शी से लोभ दर्शी लोभ दर्शी से द्वेष दर्शी, द्वेष दर्शी, गर्भ दर्शी से जन्म दर्शी, जन्म दर्शी से मृत्यु दर्शी, मृत्यु दर्शी से नरक दर्शी, नरक दर्शी से दुःख दर्शी होता है।
इस प्रकार सदैव जन्म सदैव मृत्यु का आवागमन करोड़ों जीवन पर्यंत चलता रहता है। इन सबसे मुक्त कैसे हों? जिस प्रकार कुशल वैद्य उदर में सायास अथवा अनायास पहुँचे विख को भी जड़ी-बूटी के प्रयोग से उतार देते हैं। इसी प्रकार सु-श्रावक अष्ट-कषायों को शीघ्र क्षय कर डालते हैं।
महावीर स्वामी ने संसार रूपी दावानल के ताप को शांत करने में जल के समान, मोहरूपी धन की गठरी को दूर करने में पवन (हवा) के समान, माया रूपी कठोर पर्वत को खोदने में पैने हल के समान, मार्दव रूपी वज्र के द्वारा माया रूपी पृथ्वी पर पड़े हुए गर्व रूपी पर्वत का भेदन करने हेतु भगवान महावीर ने उपदेश प्रसारत किए।
भगवान महावीर का स्वयं का जीवन ही उनके उपदेशों की एक खुली किताब है। उनके उपदेशों को जानने-समझने के लिए कोई विशेष चेष्टा की जरूरत नहीं।
वे एक गणराजा के परिवार में पैदा हुए थे, अतः ऐश्वर्य, संपदा की कोई कमी नहीं थी, वे इसका मनचाहा उपयोग, उपभोग कर सकते थे। भरी जवानी में संसार की माया-मोह, सुख, ऐश्वर्य और राज्य को छोड़कर हृदय को कंपा देने वाली रोमांचकारी यातनाओं को सहन किया। सुख, सुविधा को छोड़कर नंगे पाँव पदयात्रा करते रहे।
30 वर्ष तक उन्होंने गृहवास किया, 12 वर्षों तक तप किया और 30 वर्षों तक केवली अवस्था में रहे। इस तरह आयुष्य के अंतिम 42 वर्ष वे केवल ज्ञान की प्राप्ति में संलग्न रहे।
अंतिम 42वें चतुर्मास में वर्षाकाल के तीन माह बीत चुके थे, चौथा महीना भी आधा बीतने में ही था, उनका सतत निर्जल उपवास व तप चालू था। उपदेश की अंतिम धारा चालू थी। दिव्य-ध्वनि निःसृत हो रही थी, इसी बीच कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या आ पहुँची। स्वाति नक्ष का उदय हुआ, सर्वत्र दीपक जगमगाने लगे। अमा की काली रात्रि ज्योतिर्मय हो उठी।
इसी ज्योति के उदित होते ही दिव्य-ध्वनि रुक गई, स्पंदन बंद हो गया। एक दिव्य ज्योति परम ज्योति में विलीन हो गई।
समस्त कर्मों का नाश हुआ, चेतना ने परमपद को पा लिया। समस्त कर्मों का नाश हुआ वहाँ अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत शांति, अनंत वीर्य के अतिरिक्त कुछ नहीं था। कहीं विषाद नहीं, शोक नहीं, वेदना नहीं सर्वत्र केवल परमानंद का साम्राज्य था।
इसी परमानंद की बेला में वर्ष दर वर्ष कार्तिक अमावस्या को महावीर के दिव्य-संदेश को जन-जन तक पहुँचाने हेतु दीपक जलाए जाते हैं, मंदिरों, भवनों, कार्यालयों व बाग-बगीचों को दीपकों से सजाया जाता है।
भगवान महावीर की कृपा-प्रसाद प्राप्त हेतु लड्डुओं का नैवेद्य अर्पित कर समस्तजनों में प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है। आओ हम भी दिव्य संदेश के प्रतीक रूप में दीपक जलाएँ और लड्डुओं को उनके दिव्य प्रसाद के रूप में वितरित करें।