सद्भाव के प्रणे‍ता भगवान महावीर

- कैलाश वाजपेय
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आग से सब डरते हैं इसलिए कि आग जलाती है मगर हम अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए कई बार इतने बर्बर हो जाते हैं कि दूसरों को आग में झोंक देते हैं। इसलिए पूर्वजों ने हमें झकझोर कर बार-बार यही सुझाया था कि 'आत्मनः प्रतिक्लानि परेणां न समाचरेत।'
अर्थात् वह जो तुम नहीं चाहते दूसरे तुम्हारे लिए करें, तुम भी नहीं करो। दरअसल सामाजिक सद्भाव की, अहिंसा की शुरुआत यहीं से हुई।

ऋषभदेव जिनका जिक्र वैदिक एवं श्रमण दोनों तरह के ग्रंथों में मिलता है, पहले राजा हुए जिन्होंने लोकतंत्र की शुरुआत की। ऋषभ समता के पक्षधर थे इसलिए उन्होंने अपनी राजधानी का नाम रखा विनीता जो कालांतर में अयोध्या कहलाई।

समय आने पर ऋषभ ने अपना राज्य भरत, अपने बड़े बेटे को सौंप कर जंगल की राह ली। इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। ऋषभदेव, इस तरह पहले तीर्थंकर हुए। जिन अनुशासन को मानने वाले जैनों में जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं उनमें पहले तीर्थंकर ऋषभदेव को आदिनाथ कहा जाता है।

तीर्थंकर का अर्थ है जो भवसागर के घाट की ओर ले जाने की राह बताए। इन्हीं चौबीस तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर हुए 'भगवान महावीर।'

इतिहास कहता है सन् 599 बी.सी. की चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को, वैशाली के कुंडग्राम में माँ त्रिशला के गर्भ से एक दिव्य आभावाले शिशु का जन्म हुआ। जन्म के बाद ही संकेत मिलने लगे कि महावीर को अपने सभी पूर्व जन्म याद थे। अपनी सुगंध बिखेरते भगवान महावीर बचपन से ही अन्यमनस्क रहते।

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वे विलक्षण गुणों से युक्त थे। शीघ्र ही उन्होंने घर छोड़ दिया और बारह वर्ष तक कठिन तप ही नहीं किया, मौन भी रहे। इसी गहन तप और मौन के कारण वर्धमान महाश्रमण महावीर कहलाए। इसलिए कि उन्होंने भूख और निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली थी।

इस दुख बहुल दुनिया में, जरा और मरण के तेज प्रवाह में जीव के लिए कहीं कोई शरण नहीं। हम सब अशरण शरण जिंदगी के लिए अभिशप्त हैं। यहाँ सिर्फ धर्म ही एकमात्र द्वीप है। जिनेंद्र ने इस पूरे दृग्विषय को कई टुकड़ों में बाँटा है।

पहले जीव, अजीव इन दो को समझ लें। अजीव का अर्थ है पुद्‍गल जो अमूर्त है इसी में समाहित हैं धर्म, अधर्म, द्रव्य, समय और आकाश। आकाश असंख्य अणुओं से भरा पड़ा है जो अज्ञान में डूबे जीव के भीतर सन्निविष्ठ होकर उसे कर्म में प्रवृत्त करता है। इन्हीं जीवों में कुछ सगोद बाकी निगोद हैं। इन्हीं अणुओं के सन्निवेश से धर्म जन्म लेता है। जिनेश्वर कहते हैं, 'वत्थ स्वभावो धम्म।' वस्तु का स्वभाव ही धर्म है।

इसके बाद महावीर अहिंसा का सिद्धांत रखते हैं। इनमें करित हिंसा, कारित हिंसा और अनुमोदन हिंसा तो हैं ही, एक सौ आठ तरह की हिंसा भी आदमी करता है। जिंदा बने रहने के लिए अन्न चाहिए मगर उसके लिए धरती की छाती चीरना जरूरी है। महावीर के लिए वह भी हिंसा है। इससे अच्छा है कि तप के प्रभाव से बीज जला दो हालाँकि यह संभव नहीं क्योंकि तब जीवन ही नहीं रहेगा।

जिनेश्वर ने दूसरा सिद्धांत दिया सत्य का। इस संदर्भ में हमें उस हाथी का दृष्टांत न भूलना होगा जिसे किसी ने रस्सी, किसी ने सूप तो किसी ने खंभा माना। सत्य आत्यंतिक भी होता है और व्यावहारिक भी।

भगवान महावीर का तीसरा व्रत है ब्रह्मचर्य। यही एक ऊर्जा हमें मिली है। सेक्स को ही यौन की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसी यौन ऊर्जा का प्रवाह जब अधोगामी होता है तो उसे भोग कहा जाता है और जब ऊर्ध्वगामी होता है तब उसे योग कहा जाता है। यह ऊर्जा सही अर्थों में शक्ति है।

तरह-तरह की लूट-खसोट एवं चौर्य आदि दुर्गुणों में आदमी न फँसे, ऐसा ही कुछ सोचकर भगवान महावीर ने अस्तेय का सिद्धांत पारित किया। असल में आदमी पाँच इंद्रियों के पंजे में फँसा हुआ है इसीलिए वह लाख कोशिश करके भी अपने आसपास की दुनिया से अलग नहीं हो पाता। वासना हमें तरह-तरह से दौड़ाती है। मनुष्य की अनेक पीड़ाओं का कारण यही है।

वर्धमान महावीर अपने सूत्रों में अगला स्थान संग्रह वृत्ति को देते हैं। वैसे भगवान महावीर ने थोड़े से वस्त्र और कुछ स्थल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं माना परंतु इन उपादानों में भी आसक्ति रखना, इनके प्रति मोह को भी परिग्रह ही कहा है। संग्रह करना भीतर छिपे लोभ की सूचना देता है और लोभ कब पैदा हो जाए इसका कोई ठिकाना नहीं।

भगवान महावीर का अगला सिद्धांत 'आसव्र' नाम से जाना जाता है। इसे समझने के लिए एक दीये का उदाहरण दिया जाता है जिसमें हर रात नया तेल डालकर बाती जलाई जाती है। कुछ काल बाद दीये में सब तरफ कीचड़ की पर्त जम जाती है। कर्म श्रृंखला की प्रक्रिया में यह कषाय है जो हम सबके भीतर एकत्रित होता चला जाता है। इन कषायों को काटे बिना भीतर का आकाश साफ नहीं रह पाता है।

अगले व्रत 'संवर' का अर्थ है बाहर से आने वाले हर प्रभाव को बाहर ही रोक देना। आज के बाजारवादी युग में सबसे ज्यादा मुश्किल है संवर व्रत का निर्वाह। फिर भी कोशिश तो की ही जा सकती है। स्वयं जिनेश्वर कहते हैं, 'जिसे तृष्णा नहीं उसे मोह नहीं, जिसे लोभ नहीं उसे तृष्णा नहीं।'

जिनेंद्र द्वारा पारित निर्जरा व्रत सर्वाधिक कठिन है। इसलिए कि निर्जरा कर्मों की होती है। यह सत्य सिर्फ औपचारिक सत्य है, वस्तु सत्य यह है कि आदमी को सिर्फ कर्मों की अनुभूति होती है, निर्जरा नहीं होती क्योंकि निर्जरा अकर्म की होती है।

प्रयत्न द्वारा पकाए गए फल की ही तरह अकर्म से पैदा हुई निर्जरा को शुभ प्रयत्न द्वारा जब काटा जाता है तब उसे सहेतुक निर्जरा कहते हैं। शुभ प्रयत्नों द्वारा जब सहेतुकी निर्जरा का अंत: में पूरी तरह सफाया हो जाता है और तब जो कोराई बचती है, उसे कहते हैं मोक्ष या निर्वाण या कैवल्य।

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