आखिरी नींद में भी नहीं खत्म होगी दौड़...

दिसंबर 1992...बाबरी मस्जिद की गिराए जाने का अगला दिन.. मेरा अगर कोई घर है तो वह गांव में ही है..उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के छोटे से गांव बघांव में पिता के बनवाए घर के सामने एक कुआं है..उसकी जगत (चबूतरे को हम जगत ही कहते हैं) पर बैठा बीबीसी का सुबह सवा आठ बजे का कार्यक्रम सुन रहा था..बीबीसी सुनने का ना सिर्फ शौक था, बल्कि एक छुपी हुई-सी ख्वाहिश भी थी..बीबीसी में काम करने की..खैर..सात दिसंबर की उस सुबह हल्की सी ठंड दस्तक दे चुकी थी..उसी ठंड में बीबीसी का वह कार्यक्रम सुनते वक्त एक लरजती सी आवाज सुनी..एक तरह से वह भावोच्छवास था...

हिंदी के दबंग और शालीन कवि पंकज सिंह से अपनी तरफ से वह पहला परिचय था..बीबीसी तो उसके कई साल पहले से सुबह, रात दोनों वक्त और कई बार देर रात वाला भी कार्यक्रम सुनता रहा था..लेकिन पंकज सिंह का नाम अपने जेहन में सात दिसंबर 1992 की सुबह ही चस्प हुआ..लेकिन तब शायद ही पता था कि किसी दिन उनसे मिलना भी हो सकेगा..गांवों में रहने वाले लोगों के सपने भी छोटे होते हैं..हालांकि अपने राम बड़े-बड़े सपने देखा करते थे..बीबीसी में काम करने वाले पत्रकार से मुलाकात उस बड़े सपने में तब तक समाया नहीं था..
 
तीन साल बाद दिल्ली में वह दिन आ भी गया, जब पंकज सिंह से साहित्य अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के छोटे भाई डॉक्टर राजेंद्र रंजन ने मुलाकात कराई..तब भारतीय जनसंचार संस्थान से निकलने के बाद फ्रीलांसिंग और नौकरी खोजने की जद्दोजहद के बीच अखबार-दर-अखबार के दफ्तरों में जाना अपनी नित्यचर्या थी..तब उपेक्षा, अपमान ज्यादा मिलता था। उन्हीं उपेक्षाओं के बीच डॉक्टर राजेंद्र रंजन स्वतंत्र भारत के आईएनएस बिल्डिंग वाले दफ्तर में मिले थे..मरुस्थल में जैसा मरुद्यान होता है..कुछ वैसा ही उनका साथ रहा..अब वे पत्रकारिता में नहीं हैं..दिल्ली में ही हैं..लेकिन उनसे मुलाकात नहीं होती..यह अपनी ही कमी है कि जिस परिवार ने हमें प्यार दिया..उससे नाता टूट गया..
 
नौकरी के रूप में पहला ठिकाना देहरादून से निकले अल्पजीवी अखबार हिमालय दर्पण में मिला..तब साहित्यिक रिपोर्टिंग के दौरान डॉक्टर राजेंद्र रंजन ने कई साहित्यिक हस्तियों से मुलाकात कराई। उन्हीं दिनों कवि और अफसर मिथिलेश श्रीवास्तव से रंजन जी ने ही परिचय कराया।
 
तब मिथिलेश श्रीवास्तव दूरसंचार मंत्रालय के मुख्यालय संचार भवन के केयरटेकर और सीनियर अफसर थे..उनके यहां लेखकों-पत्रकारों की भीड़ जुटी रहती..वहीं परिचय हुआ विभूति नारायण राय से..वे तब सीआरपी में बड़े अफसर थे..वर्दी में ही मिथिलेश जी से मिलने चले आते थे..वहीं पंकज सिंह से पहली बार लंबी मुलाकात हुई..बातों का सिलसिला चला..पंकज जी की ख्याति कवि के तौर पर ही रही..लेकिन उनकी बोलचाल में काफी नफासत थी..वे हमेशा शुद्ध हिंदी के पक्षकार रहे..गलत हिंदी लिखी या बोली नहीं कि वे टोक देते थे..मिथिलेश जी अब भी लिखावट नाम से एक संस्था चलाते हैं..अजीत कौर के इंस्टीट्यूट ऑफ फाइन आर्ट के सहयोग से तकरीबन हर शनिवार को कविता या कहानी का पाठ आयोजित करते हैं..उसमें अब हम कम ही शामिल हो पाते हैं..
 
लेकिन एक दौर था कि हर कार्यक्रम में मैं, फिल्म समीक्षक अजित राय, प्रकाशन विभाग के वरिष्ठ संपादक राकेश रेणु, सहारा समय टीवी चैनल के पत्रकार संजीव श्रीवास्तव, वीएसएनएल के वरिष्ठ अभियंता राजीव वर्मा स्थायी भाव से सहयोगी रहते थे..उन्हीं दिनों तीन कवियों की मौजूदगी अक्सर वहां होती..केदारनाथ सिंह, विष्णु खरे और पंकज सिंह ने लिखावट के मंच से तमाम कविताएं पढ़ीं..विष्णु खरे अक्सर इन कार्यक्रमों का संचालन करते थे..पंकज जी और विष्णु खरे अच्छे दोस्त रहे हैं..लेकिन पंकज जी आपसी बातचीत में खरे जी को अग्निमुख कहते थे..विष्णु जी अपनी साफगोई से किसी को नहीं छोड़ते..शायद इसीलिए वे खरे जी को इसी विशेषण से याद करते थे..
 
पंकज जी, प्रतिरोध के स्वर के जबर्दस्त समर्थक थे..हालांकि निजी संबंधों पर उनके इस स्वभाव को हावी होते मैंने कभी नहीं देखा..प्रेस क्लब के इस साल के चुनाव में मिले तो शायद लंबे वक्त के बाद मुलाकात रही..उस वक्त उन्होंने बैठने का इसरार किया...साथ हम बैठे भी..तब मैंने चाय मंगाई थी तो उन्होंने मजाकिया अंदाज में तंज भी कसा था..भाई आज भी कोई चाय पीने का दिन है..
 
पंकज जी ने यह भी किस्सा सुनाया था कि हिंदुस्तान लखनऊ के संपादक का पद उन्हें कैसे ऑफर किया गया था, जब हिंदुस्तान लखनऊ से निकलने वाला था..लेकिन तब किस बात पर उन्होंने पद स्वीकार करने से मना कर दिया था..उन्होंने बीबीसी की वह घटना भी सुनाई थी..जब बीबीसी के मुख्यालय बुश हाउस की चौथी मंजिल से अपने ही बॉस को उठाकर फेंकने की धमकी दे दी थी..ये किस्से सुनाते वक्त उनके चेहरे पर रंज या अफसोस कभी नजर नहीं आया..अलबत्ता नफासत के साथ बिंदासपन ही ज्यादा दिखा..
 
पंकज जी की आशंकित मौत की खबर सबसे पहले आचार्य कृपलानी ट्रस्ट के सचिव भाई अभय प्रताप ने दी..इस ताकीद के साथ कि इसकी पुष्टि करें.. मुजफ्फरपुर से राजीव रंजन गिरि ने फोन करके अभय जी से इस खबर की तस्दीक करने को कहा था..यहां यह बता देना जरूरी है कि पंकज जी भी मुजफ्फरपुर के ही मूल निवासी थे..अभय जी का फोन आने के बाद मेरा ध्यान सबसे पहले मिथिलेश जी की तरफ ही गया था..मिथिलेश जी को भी इस दुखद खबर की जानकारी नहीं थी..इसके बाद मैंने साहित्यिक हलकों में सर्वाधिक सक्रिय भाई प्रभात रंजन को फोन किया...वे अभी पाखी के कार्यक्रम से लौट कर आ रहे थे। उन्हें भी तब इस दुखद खबर की जानकारी नहीं थी..
 
महानगर हमारी जिंदगियों के अहम पड़ाव बन चुके हैं..हमें भी दिल्ली ने बहुत कुछ दिया..लेकिन बहुत कुछ छीना भी है..हम इस महानगर की परिधि में रहते तो हैं। लेकिन इनकी परिधि में जिंदगी की जंग इतनी बड़ी हो गई है कि हमारा ज्यादातर वक्त इसी जंग से जूझते बीत जाता है। इस जंग में हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे अपने कब बीमार हुए..कब किसने क्या उपलब्धि हासिल की..कब कोई भूखा सोया..कब किसी को दर्द हुआ..इसी बीच हममें से ही कोई निकल लेता है अंतहीन यात्रा पर..तब जाकर हमारी तंद्रा टूटती है..पंकज जी की खोज-खबर जानने के क्रम में कोठागोई के लेखक प्रभात रंजन ने बड़ी मार्मिक बात कही..हमारी भी उमर हो रही है..चालीस हम सब पार कर चुके हैं..किसी दिन हम भी इसी तरह निकल लेंगे और हमारे अपनों को भी पता नहीं चल पाएगा..
 
बेबाक पंकज सिंह एक तरह से विश्वकोश भी थे..जानकारियों के भंडार और उससे भी ज्यादा संजीदा इंन्सान..वे हमारे बीच से ऐसे ही चुपके से निकल गए और हमें जब तक पता चला..काफी देर हो चुकी थी..अलविदा पंकज जी..आपकी कविताएं हमें आपकी याद दिलाती रहेंगी..उन्हीं की कविता की कुछ पंक्तियाँ उनके संग्रह -'आहटें आसपास' से :
 
'चट्टानों पर दौड़ है लम्बी
और दौड़ते जाना है गिर न जाएँ थक टूटकर 
जब तक आख़िरी नींद में
तब भी दौड़ती रहेंगी हमारी छायाएं...'

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