डॉ. आरती दुबे
बाबूजी थे अविचल जैसे हिम्मत भरा पहाड़,
लहराता था आंचल बन के मां का लाड़ दुलार
अब की बार मायके लौटी तो वो देहरी पर प्रतीक्षारत दो आंखें कहीं नहीं दिखाई दी।वो होती तो दीवारे बोल उठती, आंगन बतियाता, सीढ़ियां गलबहियां डालें छ्त तक ले जाती। किसी कोने में सूखते आंवले और धूप खाते अचार होते। दाना चुगते तोतों की कतारें होती और कलाबाजियां खाती गिलहरियां सरपट भागती। आंगन के कुंदे में हरहराती तुलसी पर हरसिंगार अपनी श्रद्धा उलट देता।
पर सब विपरीत था।सूना आंगन, वीरान दीवारें पार करते ही बाबूजी ने बांहें फैला दी।आ गई बिटिया। पर मेरा मन उस सरस स्नेह धारा में भी प्यासा था। कोने में तुलसी का कुंदा सूखा पड़ा था।झट रसोई से एक लोटा जल ला कर उड़ेला। उजाड़ कुंदे ने प्यास और बढ़ा दी। दिन बीते मां की रसोई, मां का देवघर, मां की अलमारी सब कुछ यथावत जमा दी।और उजड़े पड़े कुंदे में सूरज को जल चढाना कभी नहीं भूली।अब सब कुछ संवरा सा था।
बाबूजी नाती पर नेह लुटाते न थकते थे। वापसी का समय हो आया।प्यास तृप्त ही नहीं हुई। जाते जाते कुंदे में झांका तो दो जोड़ी नन्हीं पत्तियां ऊर्ध्व मुखी हो कर आकाश को देख रही थी, मां की जीवंत चेतना आज महसूस हुई वह यहीं है और उनका पल्लू पकड़ कर पीछे पीछे तुलसी के फेरे लेते हम भाई बहन सब कुछ आंखों के सामने आ गया। पलकें नम थी मन उत्सुक था।