मेरी मां श्रीमती त्रिवेणी पौराणिक सचमुच त्रिवेणी हैं। ज्ञान, कला और कर्म की त्रिवेणी। वे यथा नाम तथा गुण हैं। संस्कृत और हिन्दी में स्नातकोत्तर अहिल्या आश्रम, इंदौर की पूर्व प्राचार्या रह चुकी हैं। मेरी मां सबसे खास है। विशिष्ट और स्वपरिष्कृत। वे स्वनाम धन्य और स्वयंसिद्धा हैं।
देखा है मैंने उन्हें क्षण-क्षण, कण-कण और रुपए-रुपए को संरक्षित करते हुए। पुनरोपयोग करते हुए। वे गीता ज्ञान का साक्षात स्त्री रूप हैं। वे जब सामान्य बातचीत भी करती हैं तो लगता है उनके मुख से सुभाषित झर रहे हैं। जब हमारे किसी कार्य पर वे सकारात्मक टिप्पणी करतीं है तब हम चारों बच्चे धन्य हो उठते हैं।
कहते हैं ममता अंधी होती हैं। उनकी ममता अंधी नहीं बल्कि हजार आंखों वाली है। हर आंख हितकारी है। मददगार है। उद्धारक है। वे मूलत: विशुद्ध आलोचक है। उनकी आलोचना से रूष्ट होना स्वयं के भाग्योदय से मुंह मोड़ना है। उनकी आलोचना से तुष्ट होकर स्वयं में सुधार करना अपनी सफलता के नए चाँद गढ़ना है। वे तनिक भी अंधविश्वासी नहीं है। वे अपनी पीढ़ी से कहीं आगे की सोच रखती आई है। किसी भी प्रकार के डर से उनका दूर-दूर तक कोई संबंध ही नहीं।
वे धार्मिक हैं पर धर्मांध नहीं। ह्रदय से आस्तिक है पर कर्म कांडी नहीं। यूं कर्म ही उनकी पूजा है। सतत कार्य करते रहना उनकी जीवन शैली है। वे कहती हैं कार्यांतरण ही विश्राम है। अलग से थमकर आराम फरमाना उनकी आदत नहीं। उम्र के इस पड़ाव पर भी वे लगातार क्रियाशील रहती है।
सृजनात्मकता उनमें कूट-कूट कर भरी है। यद्यपि उनकी एक आंख बचपन से कमजोर है। उसमें लगभग न के बराबर दृष्टि है। लेकिन पिछले पांच दशकों से वे अनवरत सिलाई कर रही हैं। रिश्तेदारों, अपरिचितों और गरीबों को कपड़े की कतरनों को कलात्मक ढंग से जोड़-जोड़ कर न जाने कितनी थैलियाँ और किचन एप्रन सिल कर बांट चुकी हैं।
वे विज्ञान की विद्यार्थी नहीं रही है, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण उनके हर क्रियाकलाप में परिलक्षित होता है। तथाकथित झूठे अहंकार से वे कोसों दूर है। वे सामान्य-जन से दो पायदान ऊपर के दार्शनिक स्तर पर जीती हैं। वे मान-अपमान के मिथ्या सोच से परे आत्मिक आनंद के साथ रहती हैं। मां के अनुसार- 'अगर हम मानें कि इस बात का हमें बुरा लगना चाहिए तब ही हमें बुरा लगता है। कोई किसी को चाह कर भी बुरा नहीं लगवा सकता।
वे रिश्तों के संरक्षण में विश्वास रखती हैं। इस आयु में भी नए मैत्री-बंध बनाने में पीछे नहीं हटती। उन्हें अपने परिवार पर नाज है। हर कोई उनका साथ पाकर खुद को ज्ञानवान और ऊर्जावान महसूस करता है।
उन्होंने बच्चों के अर्थपूर्ण, दुर्लभ और खूबसूरत नामों की नई किताब 'सार्थक नाम कोष' के संपादन-सृजन का कार्य भार कुशलता से संभालते हुए मनोयोग से इस कृति को तैयार किया है। यह एक पारिवारिक प्रयास है जिसमें लगभग 10,000 सारगर्भित नाम संकलित और सृजित किए गए हैं। इस द्विभाषी संकलन के संपादन-संयोजन में वे तन्मयता से जुटी रही और आज वह दुर्लभ कोश पाठकों से प्रशंसा पा रहा है।।
'क्षण त्यागे कुतो विद्या, कण त्यागे कुतो धनम' के फलसफे को जीते हुए वे प्रसन्नचित्त आगे बढ़ रही हैं। उम्र की छोटी-बड़ी परेशानियों को नजरअंदाज करते हुए पारिवारिक समंदर के विस्तृत तट पर प्रकाश स्तंभ-सी खड़ी हैं। यही परम सुख और हार्दिक संतोष है कि मेरे पास ऐसी अद्वितीय मां है। मातृ दिवस पर मां को यही शब्द-फूल दे सकती हूं कि