'चार के चक्रव्यूह' में फंसी कांग्रेस और भाजपा, जीत की राह होगी मुश्किल

विशेष प्रतिनिधि

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018 (12:37 IST)
भोपाल। मध्यप्रदेश की सियासत में अब तक भाजपा और कांग्रेस का दबदबा रहा है या यूं कहें कि सूबे की सियासत भाजपा और कांग्रेस के आसपास घूमती रही है, लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सूबे के सियासी हालात देखते ही देखते बदल से गए हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले प्रदेश में बदले सियासी हालातों के बीच छोटे दलों की भूमिका देखते ही देखते बहुत प्रभावी हो गई है।


नवंबर में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में जहां बसपा और सपा ने कांग्रेस से गठबंधन नहीं करके उसके सियासी समीकरणों को बुरी तरह बिगाड़ दिया है। वहीं विधानसभा चुनाव में पहली बार किस्मत आजमाने जा रहे नए बने सियासी दल सपाक्स और जयस भाजपा की जीत की राह में रोड़ा बन सकते हैं। सियासी समीकरण को देखें तो इन छोटे दलों ने दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों के सामने एक ऐसा चक्रव्यूह सा रच दिया है, जिसको तोड़ पाना इन सियासी दलों के लिए आसान नहीं होगा।

बसपा बदलेगी सियासी समीकरण : मध्यप्रदेश में 15 साल का सत्ता का वनवास खत्म करने के इस बाद कमलनाथ की अगुवाई में कांग्रेस विपक्षी दलों के वोटों का बिखराव रोकने के लिए भाजपा के खिलाफ छोटे दलों से समझौता करना चाहती थी, लेकिन कांग्रेस की इन कोशिशों को उस वक्त बड़ा झटका लगा, जब बसपा ने बुधवार को प्रदेश में सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। बसपा के इस ऐलान के बाद प्रदेश में वोटों का सियासी समीकरण अचानक से बदल गया है, अगर बात करें बसपा के प्रभाव की तो पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा के चार विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे, वहीं बसपा ने प्रदेश में छह फीसदी से अधिक वोट हासिल किए थे।

प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों पर बसपा के उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे थे। ऐसे में इस बार विधानसभा चुनाव में बसपा की स्थिति बहुत ही प्रभावकारी हो सकती है। ग्वालियर-चंबल, विंध्य और महाकौशल के कुछ इलाकों में बसपा के पास अपना एक वोट बैंक है जो चुनाव के समय उससे नहीं झटकता है। वहीं इस बार एससी-एसटी एक्ट को लेकर जो प्रदेश में सामाजिक और सियासी माहौल बना है, उससे बसपा की नजर उस चालीस फीसदी वोट बैंक के और मजबूत होने की है। सूबे में एससी का 17 फीसदी और एसटी का 12 फीसदी वोट बैंक है और दोनों के लिए 230 में से 82 सीटें रिजर्व हैं। ऐसे में बसपा के अकेले लड़ने से सियासी समीकरण बिगड़ेगा।

सपा बनेगी सियासी संकट : सूबे में चुनाव से पहले अब तक कोई गठबंधन बना है तो वो है समाजवादी पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का गठबंधन। कांग्रेस इन दोनों दलों को भी अपने साथ लेना चाहती थी, लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर बात नहीं बन पाई। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक हीरा सिंह मरकाम ने पिछले दिनों शहडोल में एकसाथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी।

मध्यप्रदेश में गोंड आदिवासी के बीच अच्छा जनाधार रखने वाली गोंडवाना पार्टी ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से कांग्रेस विंध्य और महाकौशल में कई सीटों पर मुश्किल में पड़ सकती है। गोंडवाना पार्टी का महाकौशल और विंध्य में आदिवासी इलाकों में काफी प्रभाव माना जाता है। मध्यप्रदेश की कुल 23 फीसदी आदिवासी आबादी में से सात फीसदी गोंड आदिवासियों की आबादी है। 2003 के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में गोंगापा के तीन विधायक चुने गए थे। वहीं प्रदेश की 60 विधानसभा सीटों पर गोंडवाना पार्टी का प्रभाव सियासत के जानकार मानते हैं।

सपाक्स ने बिगाड़ा सियासी समीकरण : सूबे में एससी-एसटी एक्ट के विरोध में सड़क पर उतरने वाले संगठन सपाक्स ने अब सियासी तौर पर दस्तक दे दी है। पार्टी ने प्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। अगर बात करें सपाक्स के सियायी प्रभाव की तो ये तो चुनाव के नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा, लेकिन प्रदेश में एससी-एसटी एक्ट के विरोध में जिस तरह सामान्य वर्ग के संगठन और लोग सड़क पर उतरे हैं। उसके बाद इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि प्रदेश की सामान्य वर्ग की 148 सीटों पर सपाक्स इस बार भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकती है। अगर बात करें पिछली चुनाव की तो 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 106 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था, वहीं इस बार एससी-एसटी एक्ट को लेकर भाजपा का ही विरोध सबसे ज्यादा हो रहा है।

जयस बिगाड़ेगा जीत का गणित : मध्यप्रदेश में सरकार बनाने में आदिवासी वोट बैंक बड़ी भूमिका निभाते हैं। प्रदेश में 47 सीटें आदिवासियों के लिए रिजर्व हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इन सीटों पर एकतरफा जीत हासिल करते हुए 32 सीटों पर कब्जा जमाया था, लेकिन इस बार इन सीटों पर आदिवासियों की आवाज को उठाने वाले संगठन जयस ने ताल ठोंक दी है। जयस के सबसे बड़े नेता हीरालाल अलावा ने भाजपा को चुनौती दी है कि इस बार वो इन 47 सीटों में से एक भी सीट जीतकर दिखाए। ऐसे में ये तय है कि इस बार आदिवासियों को लेकर भी भाजपा मुश्किल में पड़ने जा रही है। वहीं किसी समय कांग्रेस का वोट बैंक माने जाने वाले आदिवासियों के सामने उनके बीच काम करने वाला एक विकल्प मौजूद है, जिससे कांग्रेस की राह भी आसान नहीं है।

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