मुझे क्षमा कर देना, गुलमोहर। मैं तुम्हें बचा नहीं सकी। किसे दोष दूं अपनी विवशता का? मेरी आंखों के सामने तुम बेरहमी से काट दिए गए और मैं कुछ न कर सकी। हजारों केसरिया पीले पुष्पों से लकदक तुम्हारी सुपुष्ट बाहें काटी गईं, मजबूत शरीर पर निर्मम प्रहार किए गए और फिर, बस कुछ ही पलों में तुम्हारा समूचा अस्तित्व धराशायी हो गया और मैं?
मैं, अपनी ही लाचारी के दायरे में सिमटी छलछलाए नेत्रों से तुम्हें देखती रही। अब भी मेरे कलेजे में तुम्हारी आत्मा कांप रही है। तुम पर पड़ने वाली कुल्हाड़ी की हर मार मुझे लहूलुहान कर रही है और मैं अपनी अशक्तता को कोसते हुए तुम्हारी स्मृतियों की किरचें समेट रही हूं।
इस बार जब दो महीने पश्चात मैं उज्जैन से लौटी तो तुम्हारे निखरे-निखरे सजीले केसरिया रूप को देखकर निहाल हो उठी थी। अपनी छत से शायद ही कोई वक्त मैंने ऐसा गुजारा हो, जब ठिठककर एकटक तुम्हें न निहारा हो। तुम्हारे सुन्दर, सुकोमल फूलों को अपनी अंजुरी में समेटे न जाने मैंने कितनी कविताएं रच डालीं।
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हर कविता पर तुम्हारा स्नेहिल आशीर्वाद हवा के मीठे ठंडे झोंके के साथ मुझ तक पहुंचा। सच मानो गुलमोहर, प्रतिक्रियास्वरूप मिले इस मधुर प्रोत्साहन ने कितनी ही बार मुझे कहीं भीतर तक भिगो दिया। तुम्हारी हर प्रतिक्रिया, प्रोत्साहन और प्रशंसा को मैंने अपनी हथेली में दबाकर गहन अनुभूति की मन-मंजुषा में सहेजकर रख दिया था। ... क्योंकि मैं जानती थी, गुलमोहर एक दिन इसी मंजुषा को मेरे थरथराते-कांपते हाथ तुम्हारी 'अनुपस्थिति' में खोलेंगे और तुमसे मुझ तक पहुंचे वे 'सुमधुर प्रोत्साहन', मेरे हृदय से लगकर खूब रोएंगे।
जहां तुम खड़े थे, गुलमोहर, वहां मकान बनने वाला है। जमीन बिक चुकी थी और यह तो मैं पहले ही जानती थी कि जिस दिन मकान बनवाने का निर्णय लिया जाएगा, मुझे और मेरे साथ-साथ तुम्हारे मित्र पीपल, नीम, आम और चंदन हम सबको तुम्हें अश्रुपूरित बिदाई देनी होगी।
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स्वयं को मानसिक हार्दिक रूप से इतना-इतना तैयार करने के बाद भी आज मैं टूट गई, गुलमोहर! जहां कल तक तुम अपनी स्वर्णिम युवावस्था के साथ बांके-सजीले से खड़े थे, वहां अब एक शून्य पसरा हुआ है, एक सन्नाटा चीख रहा है और मैं हिम्मत नहीं कर पा रही हूं तुम्हारे पार्थिव शरीर को मुड़कर देखने की। न जाने कितने वर्ष लगे होंगे तुम्हें इस खूबसूरत अवस्था को पाने में और पांच आदमियों ने 'मात्र' सात घंटे में तुम्हें इस धरा से विलग कर दिया। तुम निहत्थे अपने बलिष्ठ शरीर पर कुल्हाड़ी की तीखी धार सहते रहे और असहाय से मुझे देखते रहे।
तुमने उस बयार का वास्ता दिया जिसके शीतल अभिस्पर्श ने मुझे क्षणभर में स्वप्न की रूपहली दुनिया में पहुंचाया। तुमने वे सारी कविताएं अवरुद्ध कंठ से सुनाईं, जो तुम्हारे सान्निध्य में सहज ही अभिव्यक्ति की मोहक यात्रा पर निकल पड़ती थीं, तुमने व्यथित हृदय से उन सांध्यपाखियों का स्मरण कराया, जो शाम को अपने नीड़ों में चुग्गा लेकर लौटते और चहकते-चिंहुकते मीठे-सुरीले कलरव से तुम्हारी केसरिया शाखाओं को शादी का मंडप बना देते थे।
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तुम करुण स्वर में आम, नीम और पीपल से पूछ रहे थे वे कहां जाएंगे! मैंने महसूस किया, उन तीनों ने तुम्हारे रुदन में शामिल हो पंछियों को आश्रय देने का विश्वास दिलाया था। तुमने बार-बार मुझसे अपना अपराध पूछा था- 'मैंने कब तुम्हारी दुनिया में आकर सांप्रदायिक दंगे करवाए, मैंने कब निर्दोषों-मासूमों की जान ली, मैंने कब सत्ता के घिनौने खेल खेले, मैंने कब निर्बलों को सताया, मैंने कब किसी की अस्मिता और अस्तित्व को छला, मैंने कब अपने 'आचार' को भ्रष्ट होने दिया? तुम्हारी दुनिया में तो अब ये भी अपराध नहीं रहे। फिर मुझे यह सजा क्यों और किसलिए?
मैं क्या जवाब देती? मुझे याद है गुलमोहर, एक बार जब समीप खड़े चंदन वृक्ष के लिए हम सब चिंतित थे जिसकी जड़ों में तेजाब छिड़ककर धीमी हत्या की साजिश रची जा रही थी। चंदन की रोज-रोज की कराहट और आहों से विचलित होकर तुमने कहा था- इससे तो मेरी मौत ही बेहतर होगी, रोज-रोज मरने से तो एक बार मरना अच्छा है।
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और उस दिन मुझे 'लॉरेन्स' की पंक्तियां स्मरण हो आई थीं- 'जब कुछ तोड़ना ही है, तो सीधे आक्रमण करो। यह क्या कि तोड़ना भी चाहो और मारते हुए भी डरो, गिराओ भी तो धीरे-धीरे कि चोट न आए? तोड़ना है तो दो हथौड़ा... समाप्त! एक तीखा मर्मातक दर्द अंदर तेजी से चुभेगा लेकिन फिर कुछ नहीं...। सब कुछ शांत, स्थिर...।
रोज-रोज की उबकाती व्यग्रता से तो वह स्थिति सुखद होगी।
किंतु मैं देख रही हूं, गुलमोहर, तुम्हारे इस तरह जाने के बाद भी शांत और स्थिर कुछ नहीं हुआ। सब बेचैन हैं, पीपल, नीम, आम और जर्जर चंदन सब खामोश खड़े हैं हाथों को बांधे, सिर को झुकाए लेकिन एक अशांत आर्तनाद और अस्थिर मन अब भी मेरे आसपास भटक रहा है।
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तुम अब म्लान हो गए हो, तुम्हारी सुन्दर फूलों से आपूरित बाहें क्षत-विक्षत पड़ी हैं। नन्हे फूलों के मासूम चेहरे रो-रोकर कुम्हला गए हैं। तुम्हारे बिना अब वे भी कुछ पल के ही है। जैसे-जैसे समय बीतेगा, धूप चढ़ेगी, ढलेगी वे भी...। हवा आज मंद है, उसने अपने पैरों की रुनझुन पायल उतार दी है। मुझे अब चिंता है अपनी उन आंखों की, जो तुम्हारे रंगीन फूलों की लोरी सुनते हुए सोने की अभ्यस्त हो गई थी।
स्मृतियों के स्वर्णिम आंगन में रह-रहकर तुम मुस्कुरा रहे हो। चांदनी रात की धवलता में तुमने मुझ पर जिन शब्दों को फूलों के रूप में झरा था, उन्हें ही उठाकर मैंने पन्नों पर रख दिया था और वही कविता बन गए थे। तुम्हारे केसरिया शब्द, केसरिया पंक्ति और केसरिया अनुभूति से सज्जित रक्तिम-सिन्दूरी कविता को मैं अपनी कैसे कह दूं? तुमसे शब्द लेकर, तुम पर रची, तुम्हारी कविता!
'क्यों मेरे केसरिया रूप पर शब्दों के अर्घ्य चढ़ाती हो? सूर्य नहीं, गुलमोहर हूं मैं क्यों मुझसे प्रीत बढ़ाती हो? आओ, देखें, शहद-चांदनी को चांद पर कुछ बातें गूंथें? शीतलता के सौम्य उजास में क्यों कच्चे दीप जलाती हो?'
तुमसे ही प्रस्फुटित यह कविता आज मेरे कानों में पिघल रही है। मैंने कई बार सुनहरी ललछौंही आम्र मंजरियों, पीपल के गुलाबी पत्तों, युवा नीम के हरियाए प्रतीकों और यहां तक कि जर्जर चंदन की व्यथा पर भी कविता लिखना चाही, लेकिन लेखनी से हर बार एक ही शब्द शान से उतरा और प्राणों से झरा-गुलमोहर! न जाने वो कौन-सा रिश्ता था जिसने मुझे इतनी प्रगाढ़ता से बांध रखा था। शायद यह अहसास कि तुम बस कुछ ही दिनों तक...। नहीं गुलमोहर, कुछ दिनों नहीं, तुम सारी जिंदगी के लिए मेरे अंतर्मन में जड़ें फैला चुके हो।
तुम सिर्फ वृक्ष नहीं थे, गुलमोहर। तुम अनंत ऊर्जा के पुंज थे। तुम मुझमें तरंगित वह शब्दकोष थे जिसमें से सरल, सार्थक और सुंदर शब्द झरते थे। तुम मीठे जल प्रांतर थे जिससे अनुभूतियों की अगाध जलराशि आलोड़ित होकर मुझे भिगोती थी। तुम मेरे मन-आकाश के सूर्य थे जिसके आलोक से मेरे मस्तिष्क का कोना-कोना जगमगा उठता था।
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तुम नहीं रहे, लेकिन तुम्हारे असीमित उपकारों के तले दबकर यह संकल्प है मेरा कि मैं तुम्हारे और मेरे बीच बने-पनपे इस अडिग संबंध को कभी ध्वस्त नहीं होने दूंगी।
आज तुम्हारे हर वे शब्द जो रात्रि के सुशांत एकांत में तुमने मुझ पर बिखेरे थे, मुझे ही घेरकर बैठे हैं निर्जीव और नि:शब्द। पर्यावरण, वृक्षारोपण, हरियाली, हरित क्रांति, पारिस्थितिकी संरक्षण जैसे अर्थपूर्ण शब्द तुम्हारी मृत्यु पर शोक मनाने आए हैं और अपने समूचे अस्तित्व के साथ भी इनके 'अर्थ' अपूर्ण और अधूरे लग रहे हैं।
बुलबुल, कोयल, गोरैया, तोते और भी न जाने कितनी सुंदर रंग-बिरंगी चिड़ियाएं लौट आई हैं और फटी-फटी आंखों से अपने घरौंदों के तिनके उड़ते हुए देख रही हैं। गिलहरी सहमी हुई है। उसने भी मेरी तरह तुम्हें बेदर्दी से काटे जाने का करुण दृश्य देखा है। चंदन तो पहले ही तिल-तिल पीड़ा भुगत रहा है, अब उसे अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते देख मेरा अंतर्मन कांप रहा है। मृत्यु चाहे तुम्हारी तरह हो 'तुरंत' या चंदन की तरह 'धीमी', मेरे लिए तो दोनों ही स्थिति में किसी अस्तित्व का मिट जाना है, हरियाले नैसर्गिक स्वरूप का रौंदा जाना है।
मेरे कानों में पड़ रहे हैं पीपल के गंभीर स्वर- मानव समाज में एक दोषी भी जब मृत्युदंड पाता है तो समूची मानवता हिल जाती है। उसके अपराधों को विस्मृत करने और क्षमा कर देने की दुहाई दी जाती है किंतु स्वयं उन्हीं के 'जीवन-स्रोत' को जब बेधड़क मिटाने की कोशिश की जाती है, तब सब एक बेशर्म खामोशी ओढ़ लेते हैं। प्रकृति को जब चाहे, जहां मन चाहे मानव छल सकता है और जब प्रकृति कुपित होती है तो वह अपने 'कर्मों' पर पर्दा डाल सामूहिक रूप से उसे जी भरकर कोसा जाता है।
... कैसे कहूं पीपल से कि गुलमोहर को न बचा पाने में मैं भी उतनी ही दोषी हूं जितने कि वे हाथ जिसने उसे कटवाया है और जिसने उसे काटा है। मैं दोषी हूं, क्योंकि मैंने उसे कटते हुए देखा है, कटने दिया है और बचाने का प्रयास भी नहीं किया। लेकिन गुलमोहर, तुम मेरी आत्मा की धरा पर जड़ें जमाए हो। मेरे मन-आंगन में अविचल आज भी खड़े हों। मेरे मन-आंगन की धरा तो मेरे अधिकार क्षेत्र में है, वहां से तुम्हें कभी भी कोई भी नहीं उखाड़ सकता। जब तक मुझमें धड़कन संचारित है, तुम वहीं उसी जगह मुस्कुराते खड़े रहोगे। तुम्हें मेरी आंखों के अश्रुओं की सौगंध, गुलमोहर मेरे मन-आंगन में तुम सिसको मत, मुस्कुराओ।
मैं तुम्हें कभी टूटने, कटने और गिरने नहीं दूंगी। भीगी आंखों में तुम्हारे लिए एक शेर झिलमिला रहा है :
हम तो मर के भी किताबों में रहेंगे जिंदा गम तो उनका है, जो मर के गुजर जाते हैं।
इस समय मेरे हाथों में नन्हा पौधा है, गुलमोहर का... सुनो गुलमोहर... तुम जिंदा हो...