देश के मीडिया उद्योग के साथ इस समय करोड़ों के पेट और भाग्य जुड़े हुए हैं। सभी तरह के चैनलों की संख्या भी कुछेक हज़ार में होगी। इन लोगों में अधिकांश की व्यक्तिगत प्रतिबद्धताएं किसी भी राजनीतिक दल, विचारधारा या प्रतिष्ठान के साथ बंधी हुई नहीं हो सकती। एक चैनल से दूसरे में जाते ही एंकरों के तेवर और आवाज़ें बदल जाती हैं। इन ‘ग़ैर-प्रतिबद्ध’ मीडियाकर्मियों के सामने सवाल यह है कि उन्हें इस समय किसके साथ खड़े होना चाहिए? अर्नब के साथ?, अर्नब का हुक्म बजाने को मजबूर स्टाफ़ के साथ? या मुंबई पुलिस के साथ, जिसकी प्रतिष्ठा प्रभावित हो रही है? इस लड़ाई को मीडिया की आज़ादी का मामला बनाया जाना चाहिए या कि अर्नब और महाराष्ट्र सरकार के बीच का संघर्ष मानते हुए भविष्य में किसी राजनीतिक परिवर्तन के आकार लेने तक अधर में छोड़ देना चाहिए? पूरे प्रकरण का एक पक्ष यह भी है कि भविष्य में होने वाले किसी सत्ता-परिवर्तन की स्थिति में भी क्या मुंबई पुलिस की अर्नब और उनके चैनल के ख़िलाफ़ शिकायत इसी तरह से सक्रिय रहने दी जाएगी ?