अब इसे नतीजों का विश्लेषण कहें या लोकतंत्र के मन की बात, सच यह है कि गणित के हिसाब-किताब ने भाजपा को पीछे कर दिया है। हार-जीत से ज्यादा यह बात मायने रखती है कि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों में लोगों के अलग विचार व प्रभाव ज्यादा मायने रखते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि 2014 के आम चुनाव में सबसे ज्यादा मतदाता की पसंद भाजपा थी लेकिन तब, जब विपक्ष बंटा हुआ था। लेकिन अभी मई के आखिरी दिन आए चुनाव परिणामों का निष्कर्ष यही है कि अब भी जीत उसी की हुई है जो उपचुनावों में मतदाता की बड़ी पसंद थी। एक तरह से गठबन्धन से भी आगे की बात निकल कर सामने आई है जो बताती है कि सारा खेल अब राजनीति में भी गणित का हो गया है।
इन चुनावों से पहले भले कोई भी राजनीतिक दल अपनी लोकप्रियता को लेकर कैसी भी डींगे हांकते रहे हों, खण्डित मतदाता बनाम के फॉर्मूलों ने तब भी ऐसा ही चौंकाया था। अब यह कहना भी बेमानी नहीं होगा कि जातिगतों समीकरणों के गठजोड़ के साथ ही विपक्षी एकता की राजनीति के नए दौर की शुरुआत हो चुकी है जो दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल का दावा करने वाली भाजपा के लिए निश्चित रूप से चिंता का कारण बन चुकी है।
आंकड़ों के लिहाज से भी देखें तो 2014 में सत्ता में आने के बाद से भाजपा को उपचुनावों में कोई खास कामियाबी नहीं मिली। बीते 4 वर्षों 23 उपचुनाव हुए जिनमें केवल 4 सीटें ही भाजपा जीत सकी। लेकिन यह भी हकीकत है कि मुख्य चुनावों में भाजपा को अच्छी कामियाबी भी मिली है।
2014 में हुए लोकसभा के उपचुनावों में बीड़ (महाराष्ट्र) में भाजपा ने तो कंधमाल (ओडिशा) में बीजू जनता दल मेढ़क (तेलंगाना) में टीआरएस,वडोदरा (गुजरात) में भाजपा तो मैनपुरी (उत्तरप्रदेश) में सपा ने अपनी-अपनी सीटें बचाए रखीं। जबकि 2015 में हुए लोकसभा चुनावों में रतलाम (मध्यप्रदेश) में भाजपा की सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की वहीं वारंगल (तेलंगाना) में टीआरएस तो बनगांव (पश्चिम बंगाल) में आल इण्डिया तृणमूल कांग्रेस (एआइटीसी) ने अपनी लाज बचाए रखी। जबकि 2016 लोकसभा के 4 उपचुनावों में जो जिसकी सीट थी उसी ने दोबारा उसी ने हासिल की। लखीमपुर (आसाम) और शहडोल (मप्र) में भाजपा ने अपनी सीटें बचाए रखी वहीं कूचबिहार और तामलुक (प.बंगाल) में आल इण्डिया तृणमूल कांग्रेस ने अपनी सीटों को बरकरार रखा। जबकि 2017 में पंजाब के अमृतसर में कांग्रेस ने ही वापसी की लेकिन भाजपा को झटका देते हुए पंजाब में ही गुरदासपुर सीट कांग्रेस ने हथिया ली। जबकि श्रीनगर सीट पीडीपी के हाथों से निकल कर नेशनल कांफ्रेन्स के पास जा पहुंची तथा मल्लापुरम (केरल) की सीट पर इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आइयूएमएल) ने कब्जा बरकरार रखा। लेकिन 2018 में हुए उपचुनाव भाजपा के लिए बेहद निराशा जनक रहे।
राजस्थान की अलवर और अजमेर सीट भाजपा के हाथों से खिसककर कांग्रेस के हाथों में चली गई जबकि प.बंगाल में उलुबेरिया की सीट बचाने एआइटीसी कामयाब रही। बेहद महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठा की सीट माने जाने वाली गोरखपुर और फूलपुर यानी भाजपा के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री बनाए जाने से भाजपा की रिक्त दोनों सीटें समाजवादी पार्टी ने छीनकर, उसी के बड़े घर उत्तरप्रदेश में जबरदस्त पटखनी दे दी। जबकि राष्ट्रीय जनता दल बिहार की अररिया सीट बचाने में कामयाब रहा।
इनके अलावा गुरुवार 31 मई को 4 लोकसभा सीटों के आए नतीजों ने निश्चित रूप से भाजपा खेमें के लिए बड़ी चिंता बढ़ा दी है। विपक्षी एकता के तहत हुए गोरखपुर-फूलपुर के प्रयोगों से उत्साहित संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी ने राष्ट्रीय लोकदल के चिन्ह पर जहां कैराना की प्रतिष्ठापूर्ण सीट भाजपा से छीन ली वहीं लगभग ऐसा ही प्रयोग गोंदिया में करते हुए भाजपा को साल की चौथी शिकस्त दे दी। हां भाजपा जहां पालघर सीट को बचाने में सफल रही वहीं नागालैण्ड में भाजपा समर्थित गठबंधन एनडीपीपी सीट बचाने में कामयाब रहा।
निश्चित रूप से ये परिणाम चौंकाने वाले कम लेकिन राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत देते जरूर लगते हैं। यहां वोट की राजनीति से ज्यादा उसका अंकगणित का खेल दिख रहा है। नतीजे संकेत दे रहे हैं कि भाजपा के पास भले ही मतों का प्रतिशत आंकड़ों में ज्यादा दिखे लेकिन बिखरे विपक्ष का एका उसके गणित के अंकों को बढ़ा रहा है यानी राजनीतिक दलों का भविष्य एक बार फिर संयुक्त विपक्ष की एकता के लिए अनुकूल नतीजे देने वाला साबित हुआ है जिससे विपक्षी एकता के प्रति उत्साह और राजनीति में नया बदलाव 2019 के आम चुनावों से पहले इसी साल के आखिर और 2019 की शुरुआत में होने वाले 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव पर पड़ना निश्चित है। अब गणित कुछ भी हो लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं आज लोकतंत्र ने सुना दी अपने मन की बात!